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आम व ख़ास
दुनिया की किसी भी भाषा में यह तरीक़ा नहीं है कि हर शब्द एक ही अर्थ और हर शैली एक ही मक़सद के लिए विक्सित हुई हो। आम तौर से शब्दों के बहुत से अर्थ होते हैं। इसलिए यह फ़ैसला करना कि किसी कलाम में कोई शब्द किस अर्थ में इस्तेमाल हुआ हैं, इस पर आधारित होता है कि जुमले (वाक्य) की रचना, वाचक की पहचान, कलाम की संरचना, परिवेश या परिप्रेक्ष्य और इस तरह के कुछ दूसरे संकेत क्या बताते हैं। इसका तरीक़ा यह होता है कि शब्द के जितने भी अर्थ प्रचलित होते हैं उन सब को सामने रख कर कभी गहरे चिंतने के साथ और कभी बिल्कुल सामान्य और साधारण ढंग से हम यह समझ लेते हैं कि यहां कौन सा अर्थ निश्चित रूप से लिया जाएगा। भाषा के सम्बंध में यही सच्चाई है जिसके आधार पर इमाम शाफ़ई ने अपनी किताब ‘अलरिसाला’ में क़ुरआन के विशेष व सामान्य विषयों या अर्थों के सम्बंध में कहा है कि भाषा मोहतमिलुल मआनी (कई अर्थों की सम्भावनाएं लिए हुए) होती है। इसके ख़ास व आम शब्द भी जब किसी कलाम का अंग बन कर आते हैं तो ज़रूरी नहीं है कि हर हाल में उसी अर्थ के लिए आएं जिसके लिए वो बने हैं। अल्लाह की किताब इस तरह उतरी है कि उसमें शब्द आम (सामान्य) होता है मगर उसे एक विशेष अर्थ में लिया जाता है और शब्द ख़ास (विशेष) होता है लेकिन उसे सामान्य अर्थ में लिया जाता है। इसलिए न तो ख़ास के बारे में यह कहा जा सकता कि वह अपने किसी विशेष अर्थ के लिए निश्चित है और न आम शब्द के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह अपने अन्तर्गत आने वाले तमाम अर्थों के लिए दलील बनेगा। सिद्धांत के माहिरों (“अइम्मा ए उसूल”) के एक वर्ग को इससे असहमित है। लेकिन सच्ची बात यह है कि इस मामले में इमाम शाफ़ई का दृष्टिकोण सही है, इसलिए कि यह केवल शब्द पर आधारित नहीं बल्कि उसके इस्तेमाल के मौक़े और जगह पर निर्भर करता है कि सुनने या पढ़ने वाला उसका कौन क्या मतलब समझता है। हमने अपनी किताब ‘मीज़ान’ के उसूल व मुबादी में लिखा हैः
“…. क़ुरआन में यह शैली जगह जगह इस्तेमाल की गयी है कि देखने में तो शब्द आम हैं लेकिन परिवेश या परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से निश्चित रूप से यह पता चल जाता है कि उन से अभिप्राय आम नहीं है। क़ुरआन “अल्न्नास “कहता है, लेकिन इस शब्द से अभिप्राय सारी दुनिया के इंसान हों यह ज़रूरी नहीं, कई बार तो यह अरब के भी सभी लोगों के लिए नहीं होता। क़ुरआन “अलअद्दीनि कुल्लिही” कहता है लेकिन इससे दुनिया के सारे दीन मुराद नहीं लेता। वह “अलमुशरिकून “ का शब्द इस्तेमाल करता है लेकिन इसे सब शिर्क करने वालों के अर्थ में इस्तेमाल नहीं करता। वह “इन्नः मिन अहलिल किताब “के शब्द इस्तेमाल करता है लेकिन इससे अभिप्राय पूरी दुनिया के अहले किताब नहीं होता। क़ुरआन कुछ जगहों पर “अलइंसान “का शब्द इस्तेमाल करके इस तरह अपना पैग़ाम देता है कि वहां आदम की सारी संतानों को सम्बोधित करना मक़सद नहीं होता। यह क़ुरआन की आम शैली है जिसका ध्यान अगर न रखा जाए तो क़ुरआन की तशरीह (व्याख्या) में वाचक की मंशा नहीं समझी जा सकती और बात कहीं से कहीं जा पहुंचती है, इसलिए ज़रूरी है कि इस मामले में क़ुरआन के उर्फ़ (आम संदेश) और उसके परिवेश की पाबन्दी के साथ उसके शब्दों को समझा जाए।” (23)
भाषा की इसी नज़ाकत की वजह से क़ुरआन के आलिम और शोधकर्ता यह कहते हैं कि वाचक ;अल्लाहद्ध की मंशा तक पहंुचना हो तो केवल ज़ाहिरी शब्दों के आधार पर नहीं, बल्कि उनके निहितार्थ को समझ कर फ़ैसला करना चाहिए। रसूल सल्ल. ने अल्लाह की किताब को इसी तरह समझाने का फ़र्ज़ अदा किया है और उन निहितार्थों को स्पष्ट कर दिया है जिन तक पहुंचना आपके बग़ैर मुमकिन नहीं। इमाम शाफ़ई ज़ोर देकर कहते हैं कि ज़ाहिरी शब्दों के आधार पर अल्लाह के रसूल की इन व्याख्याओं व स्पष्टीकरण को नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए। यह क़ुरआन का बयान है, इसमें कोई बात ख़ुद क़ुरआन के विपरीत नहीं होती। अल्लाह के पैग़म्बर भी अल्लाह की किताब के ही पाबन्द हैं। पैग़म्बर क़ुरआन के बयान को खोल कर बताते हैं उसमें कोई बदलाव नहीं करते क्योंकि अल्लाह की तरफ़ से ही उन्हें इसका इख़्तेयार नहीं दिया गया है। इमाम साहब ने अपनी किताब में इसकी मिसालें भी दी हैं। उन्होंने बार बार ख़बरदार किया है कि क़ुरआन के निर्देशों के सम्बंध में अल्लाह के रसूल सल्ल. ने जो कुछ फ़रमाया है, वह केवल बयान है यानि क़ुरआन के पैग़ाम को स्पष्ट करके बताना है। इस बात को नहीं माना जाएगा तो यह क़ुरआन का अनुसरण नहीं बल्कि क़ुरआन के निर्देशों के विपरीत बात होगी। क्योंकि इस कलाम के वाचक (अल्लाह तआला) की मंशा वही है जो पैग़म्बर की व्याख्या से स्पष्ट हो रही है, वाचक की मंशा इससे अलग नहीं है।
इमाम शाफ़ई की इस बात से ज़्यादा सच्ची बात और क्या हो सकती है? लेकिन इमाम के तर्क की कमज़ोरी यह है कि अधिकांश अवसरों पर वह यह नहीं बता सके कि शब्द और उसके अर्थ के बीच जिस सम्बंध को वह बयान कहते हैं वह उनमें पैदा कैसे होता है। इसी का नतीजा है कि पैग़म्बर सल्ल. के इल्म व अमल की कुछ ऐसी रिवायतों पर भी वह संतुष्ट हो गए हैं जिन्हें किसी तरह बयान नहीं कहा जा सकता, हालांकि उनके बारे में यह मतभेद हो सकता था कि उन्हें नक़ल करने वालों ने ख़ुद पैग़म्बर सल्ल. की मंशा को ठीक तरीक़े से समझा और बयान किया भी या नहीं। इमाम शाफ़ई के दृष्टिकोण से जो लोग मतभेद करते हैं उनकी असली उलझन यही है।
हम ने ‘मीज़ान’ में कोशिश की है कि इमाम के दृष्टिकोण को पूरी तरह खोल दें, इसलिए कि सैद्धांतिक रूप से वह बिल्कुल सही है। मीज़ान के मज़मून “उसूल व मुबादी” में “मीज़ान और फ़ुरक़ान” शीर्षक से यह विवेचना देखी जा सकती है। इससे यह सच्चाई सामने आ आजाएगी कि क़ुरआन के निर्देशों से सम्बंधित रिवायतों में जो कुछ बयान हुआ है, वह उसके शब्दों का निहितार्थ है जिसे पैग़म्बर सल्ल. ने अपनी व्याख्यों से ज़ाहिर कर दिया है।
2011