लेखक: जावेद अहमद ग़ामिदी
अनुवाद: मुहम्मद असजद
पोते की विरासत में दादा और दादा की विरासत में पोते का कोई हिस्सा साफ तौर पर तो कुरआन में बयान नहीं हुआ, लेकिन أولاد (औलाद) और آبا (आबा) के शब्दों में लुग़त (शब्दकोश) और उर्फ़ (इस्तेमाल), दोनों के एतबार से दादा और पोता भी शामिल हो जाते हैं, इसलिए फुकहा (धर्मशास्त्रियों) की हमेशा आम सहमती रही है कि प्रत्यक्ष औलाद (direct children) और प्रत्यक्ष माता-पिता (direct parents) में से कोई मौजूद ना हो तो जो हिस्सा उनके लिए तय है, वही अप्रत्यक्ष औलाद (indirect children) और अप्रत्यक्ष माँ-बाप (indirect parents) को दिया जायेगा।[1]
हालांकि औलाद के मामले में एक स्थिति यह भी पैदा हो जाती है कि एक या कुछ बच्चे आदमी के जीवन में मर जायें और एक या कुछ बच्चे उसके मरने के बाद जीवित हों। फुकहा का इज्तेहाद[2] यह है कि इस मामले में जो बच्चे मर गए हों, उनकी औलाद को दादा की विरासत में से हिस्सा नहीं मिलेगा, अपने चाचाओं के होते हुए वह इससे वंचित (मेहरूम) कर दिए जाएंगे, सिवाय इसके कि दादा उनके पक्ष (हक़) में वसीयत करे। मौजूदा समय में कुछ विद्वानों (अहले इल्म) ने यह राय ज़ाहिर की है कि फुकहा का यह इज्तेहाद सही मालूम नहीं होता। एक पोता बेटे की ही तरह होता है, इसलिए बेटे की मौत के बाद उसे वह हिस्सा मिलना चाहिए जो उसका पिता जीवित होता तो उसे मिलता। हमारे राय में भी यही बात सही है। इसलिए हम यहाँ उन आपत्तियों (एतराज़) का जवाब देंगे जो इस पर हमारे प्रतिष्ठित और सम्मानित विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी साहब ने अपनी किताब “तफहीमात” में किए हैं। आपत्तियां इस प्रकार हैं:
1- कुरआन के मुताबिक जिस व्यक्ति को भी विरासत का कोई हिस्सा मिलता है, खुद मृतक का करीबी रिश्तेदार (अकरब) होने की हैसियत से मिलता है, यह हिस्सा किसी रिश्तेदार के विकल्प होने की हैसियत में (एवज़ में) नहीं मिलता। इसलिए, दादा की विरासत से अनाथ पोते को हिस्सा देने का यह सुझाव विकल्प का एक बिल्कुल गलत नज़रिया इस्लाम के कानून-ए-विरासत में दाखिल कर देता है जिसका कुरआन में कोई सबूत नहीं है। इसके अलावा, विकल्प को बतौर सिद्धांत (उसूल) स्वीकार कर लेने के बाद यह उसको औलाद की औलाद तक सीमित (महदूद) रखता है। इसके पक्ष में भी कोई उचित तर्क (दलील) पेश नहीं किया जा सकता।
2- कुरआन के मुताबिक एक व्यक्ति की विरासत में उन्हीं लोगों का हिस्सा है जो उसकी की मृत्यु के समय जीवित हों, मगर यह सुझाव उन लोगों को भी विरासत में हिस्सेदार बना देता है जो उसके जीवन में मर चुके हैं।
3- कुरआन ने कुछ रिश्तेदारों के हिस्से स्पष्ट रूप में (कतई) तय कर दिए हैं, उनमें कम-ज़्यादा नहीं हो सकता, लेकिन इस सुझाव पर अमल के नतीजे में खुद कुरआन के तय किए हुए कुछ हिस्सों में कमी और कुछ में बढ़ोतरी हो जाती है।
पहली आपत्ति का जवाब यह है कि पोते को यह हिस्सा इसलिए नहीं दिया जा रहा है कि वारिस की हैसियत में वह अपने पिता का विकल्प है, बल्कि इसलिए दिया जा रहा है कि पिता की मृत्यु के बाद वह उसी हैसियत से दादा का अकरब हो गया है, जिस हैसियत से उसका पिता अकरब था। इसलिए इस लिहाज़ से वह पिता का विकल्प है। जब उसका पिता जीवित था तो औलाद के रिश्ते में वह अपने पिता का अकरब था। अब वह दुनिया में नहीं रहा तो उसकी जगह पोता अकरब है और इसी आधार पर विरासत में हिस्से का हकदार है। पिता के जीवन में भी वह दादा के लिए औलाद ही था और उसके मरने के बाद भी वह दादा के लिए औलाद ही है। पिता की मृत्यु के बाद जो फर्क पड़ा है, वह यह है कि दादा का अकरब होने में भी पिता का विकल्प हो गया है। यह उस अर्थ (मायने) में विकल्प नहीं है, जिस अर्थ में मौलाना इसे समझ रहे हैं। यह मृतक (मय्यत) के अकरब की जगह ले लेना है जो खुद मौलाना के अनुसार इस्लामी कानून-ए-विरासत का आधार (बुनियाद) है। अगर मृतक की नीचे तक कोई औलाद न हो तो बहन भाई इसी हैसियत से औलाद की जगह ले लेते हैं यानी औलाद का विकल्प हो जाते हैं और कुरआन के उसी तरीके के अनुसार और ठीक वही हिस्सा पाते हैं जो औलाद की उपस्थिति (मौजूदगी) में उसके लिए निर्धारित (तय) है। इस मामले को देखने के लिए सूरा निसा (4) की अंतिम आयत को देखा जा सकता है वह इसको स्पष्ट रूप से बयान करती है। इसे औलाद की औलाद तक सीमित रखने का कारण यह है कि पत्नी या पति के मर जाने के बाद उनका कोई वारिस किसी भी दर्जे (स्तर) में पत्नी या पति नहीं हो जाता कि उसे मृतक के अकरब होने में वही जगह दी जाये यानी मृतक का पोता तो बेटे के मरने पर बेटे का विकल्प हो सकता है पर कोई भी वारिस मृतक के पति या पत्नी का विकल्प नहीं हो सकता।
दूसरी आपत्ति का जवाब यह है कि पोते को जो हिस्सा दिया जा रहा है, वह पिता का हिस्सा नहीं है जो वारिस के रूप में उसके बेटे को दिया जा रहा है, बल्कि खुद उसी का हिस्सा है जो इसलिए दिया जा रहा है कि पिता की मृत्यु के बाद वह उसकी जगह पर और उसी रूप में दादा का अकरब हो गया है। इस से कुरआन के इस सिद्धांत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि एक व्यक्ति की विरासत में उन्हीं लोगों का हिस्सा है जो उस व्यक्ति की मृत्यु के समय जीवित हों। अनाथ पोते को विरासत में हिस्सा देने की यह सलाह भी उसी को हिस्सेदार बना रही है जो व्यक्ति की मृत्यु के समय जीवित है।
तीसरी आपत्ति इस गलतफहमी से पैदा हुई है कि पोतों में विरासत के बँटवारे का यही तरीका उस समय भी अपनाया जाएगा, जब औलाद में से कोई मौजूद न हो। मौलाना ने एक उदाहरण से इसे समझाया है। वह लिखते हैं:
'' … मान लें कि एक व्यक्ति के दो ही लड़के थे और दोनों उसके जीवन में मर गए। एक लड़का अपने पीछे चार बच्चे छोड़ कर मरा। दूसरा लड़का सिर्फ एक बच्चा छोड़कर मरा। कुरआन के मुताबिक यह पांचों पोते दादा के लिए एक समान औलाद हैं, इसलिए दादा की विरासत उन सब को बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए, लेकिन विकल्प के सिद्धांत पर इस संपत्ति में आधा एक पोते को मिलेगा और बाकी आधा चार पोतों में बराबर बटेगा।[3]
इस आपत्ति का जवाब यह है कि ऐसा ज़रूरी नहीं है। इस मामले में वही तरीका कायम रखा जा सकता है जो इस समय है, यानी सभी पोतों को बराबर हिस्सा दिया जाए। इसके लिए रहनुमाई (मार्गदर्शन) खुद कुरआन के अंदर मौजूद है। उसने एक वारिस को दूसरे वारिसों की मौजूदगी में एक तरीके से और नामौजूदगी में दूसरे तरीके से हिस्सा देने की हिदायत फ़रमाई (निर्देश दिया) है। इसलिए, औलाद मौजूद हो तो माता-पिता में से हर एक का हिस्सा 1/6 है। औलाद मौजूद न हो और भाई बहन हों तो उनका हिस्सा यही रहेगा। लेकिन मृतक के वारिस सिर्फ माता-पिता हों तो माँ का हिस्सा एक तिहाई और पिता का दो तिहाई है। यही स्थिति कलालह रिश्तेदारों की है। उनमें से किसी को वारिस बना दिया जाए और उसका एक भाई या एक बहन हो तो उनमें से हर एक का हिस्सा 1/6 है, लेकिन भाई बहन एक से अधिक हों तो सब एक तिहाई में शामिल होंगे और उन्हें बराबर हिस्सा मिलेगा। इसलिए यह जरूरी नहीं है कि पोतों के लिए दोनों सूरतों में एक ही तरीके पर जोर दिया जाए। यह सरासर इज्तेहाद का मामला है। इसमें जो तरीका भी अपनाया जाए, उसे कुरआन के सिद्धांतों के मुताबिक और हर हाल में इंसाफ पर कायम होना चाहिए।
[1]. “प्रत्यक्ष माँ-बाप” और “प्रत्यक्ष औलाद” से मुराद माँ-बाप और बच्चे हैं, जबकि “अप्रत्यक्ष माँ-बाप” और “अप्रत्यक्ष औलाद” से मुराद दादा दादी और पोता-पोती हैं (अनुवादक)।
[2]. इज्तेहाद: जिन मामलों का इस्लाम के स्रोतों (कुरआन और सुन्नत) में उल्लेख नहीं है उन पर इल्म (ज्ञान), अक्ल, अनुभव और पूरे दीन को ध्यान में रखते हुए एक राय पर पहुंचना।
[3]. सैयद अबुल आला मौदूदी, तफहीमात, भाग.2 182।