कुरआन की निम्नलिखित आयत की बुनियाद पर कुछ मुसलिम विद्वान (आलिम)[1] यह राय रखते हैं कि मुसलमानों को गैर-मुस्लिमों से मित्रता नहीं रखनी चाहिए, बल्कि उन्हें उनके लिए दुश्मनी और नफ़रत भरा रवैया रखना चाहिए:
لَّا يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُونَ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ [٣: ٢٨]
ईमान वाले अब मुसलमानों को छोड़कर इन काफिरों को अपना दोस्त ना बनायें। (3:28)
इसी तरह यह आयात:
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ أَتُرِيدُونَ أَن تَجْعَلُوا لِلَّهِ عَلَيْكُمْ سُلْطَانًا مُّبِينًا [٤: ١٤٤]
ईमान वालों तुम मुसलमानों को छोड़कर इन मुन्किरों को अपना दोस्त ना बनाओ। क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह को अपने खिलाफ साफ़ तर्क दे दो ? (4:144)
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا الْيَهُودَ وَالنَّصَارَىٰ أَوْلِيَاءَ بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاءُ بَعْضٍ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمْ فَإِنَّهُ مِنْهُمْ [٥ :٥١]
ईमान वालों, तुम इन यहूद और नसारा को दोस्त मत बनाओ। यह एक दूसरे के दोस्त हैं। और तुम में से अगर कोई इन्हें अपना दोस्त बनाता है तो फिर उसको इन्हीं में से माना जायेगा। (5:51)
इन आयात के सन्दर्भ (पसमंज़र) पर गौर करने से पता चलता है कि यह अल्लाह के उस ख़ास कानून से संबंधित हैं जो कुरआन में बयान हुआ है[2] , और इस कानून के अनुसार जब अल्लाह किसी समुदाय या कौम के पास अपना रसूल (संदेष्ता) भेजता है तो उस कौम का फ़ैसला दुनिया में ही कर देता है ताकि यह और लोगों के लिए आने वाली कयामत की मिसाल बने और वह इससे सीख ले सकें। इस कानून के तहत जब किसी कौम के ऊपर रसूल भेजा जाता है तो उनका रसूल उनके लिए सच को इस तरह पेश कर देता है कि ना मानने का कोई बहाना किसी के पास बाक़ी नहीं रहता। उसके बाद जो लोग भी सच को जानते-बुझते ठुकरा देते हैं उनको दुनिया में ही अल्लाह की तरफ से सज़ा मिलती है। यह आयात भी अल्लाह के आखिरी रसूल मुहम्मद (स.व) को जानते-बुझते ठुकराया जाने के बारे में हैं। कुरआन में इसका विवरण कुछ इस तरह है:
وَدَّ كَثِيرٌ مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ لَوْ يَرُدُّونَكُم مِّن بَعْدِ إِيمَانِكُمْ كُفَّارًا حَسَدًا مِّنْ عِندِ أَنفُسِهِم مِّن بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْحَقُّ [٢: ١٠٩]
बहुत से किताब वाले (यहूदी और ईसाई) सिर्फ अपनी ईर्ष्या (हसद) के कारण यह चाहते हैं कि तुम्हारे ईमान लाने के बाद वह फिर तुम्हें कुफ़्र (इनकार) की तरफ पलटा दें, इसके बावजूद के सच उन पर पूरी तरह स्पष्ट हो चूका। (2:109)
فَلَمَّا جَاءَهُم مَّا عَرَفُوا كَفَرُوا بِهِ فَلَعْنَةُ اللَّهِ عَلَى الْكَافِرِينَ [٢: ٨٩]
फिर जब उनके पास वह चीज़ आयी जिसको उन्होंने पहचान लिया था तो उन्होंने उसको झुठला दिया। इसलिए अल्लाह की फटकार है झुठलाने वालों पर। (2:89)
थोड़ी विवेचना (गौर) से साफ़ हो जाता है कि यह आयात रसूलों के लिए अल्लाह के खास कानून से संबंधित हैं, यह आयात आखिरी रसूल (स.व) के मिशन के उस चरण (मरहले) में मदीने में उतरी हैं जब मुसलमानों को एक समूह (जमात) के तौर पर गैर-मुसलमानों से अलग हो जाने के लिए कह दिया गया ताकी मुसलमान और गैर-मुसलमान अलग-अलग समूह के तौर पर पहचाने में आ जायें। ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि अब वह समय आना वाला था जब एक रसूल का जानते-बुझते इनकार करने वालों को दुनिया में ही अल्लाह की तरफ से अज़ाब दिया जाता है। रसूलों के बारे में अल्लाह का यह खास कानून है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो यह आयात रसूलअल्लाह मुहम्मद (स.व) के समय के गैर-मुसलमानों के बारे में हैं जिन्होंने सच को पहचाने लेने के बाद भी जानबूझकर उसका इनकार कर दिया था। कुरआन ने जिस सन्दर्भ में आर्टिकल अलीफ लाम (अल्) को इन शब्दों के साथ प्रयोग किया है उससे भी यह साफ़ हो जाता है कि सारे गैर-मुसलमानों की नहीं बल्कि एक खास वर्ग की बात हो रही है – अल्-काफिरीन (यह इनकार करने वाले), अल्-यहूद (यह यहूदी), अल्-नसारा (यह ईसाई)। इन आयात का आज के गैर-मुस्लिमों से कोई संबंध नहीं है।
लेखक: शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद