ज़्यादातर लोग सोचते हैं कि इस्लाम हमें एक पूरी आर्थिक व्यवस्था (economic system) देता है और ज़रूरत सिर्फ अनुकूल हालात में उसे लागू करने की है। यह धारणा (तसव्वुर) सही नहीं है। इस बात को समझना चाहिए कि अल्लाह ने इंसान को अक्ल और तर्क से नवाज़ा है और इसके साथ ही अच्छाई और बुराई में फ़र्क करने के लिए अंतर्जात मार्गदर्शन (फ़ितरी हिदायत) देकर हमें दुनिया में भेजा है, यानी हर इंसान की फितरत में अच्छाई और बुराई का फ़र्क साफ़ मौजूद है। ज़िन्दगी के ज़्यादातर सभी मामलों में इंसान की अक्ल और उसकी फितरत में मौजूद अच्छाई-बुराई का यह फ़र्क उसके मार्गदर्शन, उसे रास्ता दिखाने के लिए काफी है। लेकिन कभी-कभी ज़िन्दगी में ऐसे मोड़ भी आते हैं जहाँ फैसला करने के लिए उसे दिव्य मार्गदर्शन (अल्लाह की हिदायत) की ज़रूरत पड़ती है। नतीजतन, सभी मामलों में हर छोटी-बड़ी चीज़ के लिए निर्देशों की पूरी व्यवस्था (निज़ाम) नहीं उतारी गयी है। इसके बजाय कुछ बुनियादी उसूलों और नियमों की रूपरेखा (outline) दी गयी है जिसका पालन किया जाना चाहिए। इस बात को ध्यान में रखते हुए अक्ल और तर्क की बुनियाद पर समाज की ज़रूरतों के हिसाब से एक व्यवस्था बनायी जाएगी। अब चूंकि यह ज़रूरतें समय और जगह के हिसाब से अलग-अलग होंगी तो नतीजतन व्यवस्था भी उसी तरह अलग-अलग विकसित होगी, लेकिन यह व्यवस्था हमेशा उन्हीं उसूलों और नियमों की रूपरेखा पर आधारित होगी।
दूसरे शब्दों में कहा जाये तो, शरीअत, जो की उसूलों और नियमों की रूपरेखा है वह अल्लाह ने उतारी है, दिव्य है इसलिए उसमें बदलाव नहीं किया जा सकता, लेकिन इस शरीअत के उसूलों पर बनाई गई व्यवस्था इंसानी निष्कर्ष है, यह एक इंसानी काम है और इसलिए इसमें लचीलापन मौजूद है। यह लचीलापन इसलिए छोड़ा गया है ताकि बदलते हुए हालत और मानव समाज के विकास को जगह दी जा सके और व्यवस्था को हालात के हिसाब से ढाला जा सके।
इसलिए, कुरआन और सुन्नत में पूरी आर्थिक व्यवस्था खोजने के बजाय मुस्लिम विद्वानों (आलिमों) की कोशिश शरीअत के उन उसूलों को सामने लाने की होनी चाहिए जिनकी बुनियाद पर मामलात करने हैं। इस्लामी शरीअत की बुनियाद पर फिर व्यवस्था बनाना का काम अर्थशास्त्रियों और इस क्षेत्र की पेचीदगियों को समझने वालो पर छोड़ दिया जाना चाहिए।
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद