लेखक: जावेद अहमद ग़ामदी
संकलन: शेहज़ाद सलीम
अनुवाद : मुहम्मद असजद
इस्लाम के बारे में कई अन्य गलत धारणाओं (तसव्वुर) में से एक धारणा यह भी है कि इस्लाम गुलामी को मंजूरी देता है और अपने मानने वालों को इजाज़त देता है कि वह युद्ध के कैदियों, खासकर महिलाओं को दासी बनाएं और उनसे विवाहेतर (extra-marital) संबंध रखें। लेकिन सच्चाई यह है कि इस्लाम का गुलामी और रखेल-प्रथा से ज़रा भी संबंध नहीं है। इसके उलट इस्लाम में इस तरह की प्रथाओं की पूरी तरह से मनाही है। जो धर्म मानवता की उन्नति के लिए उतरा है उसका संबंध इस तरह की ज़ालिमाना और घृणा योग्य प्रथाओं से निकालना बेहद अपमानजनक है।
जिस बात को समझने की ज़रूरत है और जो शायद इस गलतफ़हमी की असल वजह भी है वह यह कि इस्लाम ने गुलामी की प्रथा को खत्म करने के लिए एक क्रमिक प्रक्रिया (gradual process) को अपनाया यानी एकदम से इसको खत्म करने का हुक्म देने की बजाय धीरे-धीरे इसे समाप्त किया गया क्योंकि उस समय अरब के समाजी हालात को देखते हुए यही सही रास्ता था। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस्लाम से पहले गुलामी की प्रथा अरब समाज का एक अभिन्न हिस्सा थी। लगभग हर घर में बड़ी संख्या में महिला और पुरुष गुलाम मौजूद थे। इसके दो बड़े कारण थे: पहला, उस समय आम नीति यह थी कि युद्ध के कैदियों को गुलामों के रूप में विजयी सेना में बाँट दिया जाता था। दूसरा, उस समय अरब में गुलामों के व्यापक बाज़ार हुआ करते थे जहाँ हर उम्र के महिला-पुरुष गुलाम किसी समान की तरह बिका करते थे।
इन हालात में जहाँ गुलामी अरब समाज की ज़रूरत बन चुकी थी, इस्लाम ने इसे खत्म करने के लिए धीरे-धीरे लेकिन सधे हुए कदम बढ़ाये। इसको खत्म करने का तत्काल आदेश दे दिया जाता तो बड़ी सामाजिक और आर्थिक (social & economic) परेशानियाँ पैदा हो जाती। गुलामों की इतनी बड़ी संख्या जो कि अभी तक विभिन्न परिवारों पर निर्भर थी, उनकी ज़रूरतें पूरा करना समाज के लिए नामुमकिन हो जाता। इसके अलावा राज्य के ख़ज़ाने की भी यह स्थिति नहीं थी कि सब को स्थायी आधार दे सके। उनमें बड़ी संख्या बूढ़े थे जो खुद की रोज़ी-रोटी के लिए कुछ नहीं कर सकते थे, उन्हें एकदम आज़ाद करने पर भीख मांगने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं बचता और वह समाज पर आर्थिक बोझ बन जाते। गुलाम महिलाओं और लड़कियों का मामला और भी नाज़ुक था, गुलामी के कारण उनका नैतिकता (अख्लाकियात) का स्तर पहले ही बहुत कम हो चुका था और अचानक मुक्त कर देने से वेश्यालयों में भारी बढ़ोतरी होती।
इस तरह की क्रमिक प्रक्रिया को क्यों अपनाया गया यह और बेहतर तरीके से समझने के लिए हम आज के दौर के कई मुसलिम राज्यों की अर्थव्यवस्थाओं (economies) में ब्याज़ की स्थिति को मिसाल के तौर पर देख सकते हैं। ब्याज़ इन अर्थव्यवस्थाओं का एक अभिन्न अंग बन चुका है इस बात को नकारा नहीं जा सकता इसकी जड़ें इतनी जम चुकी हैं कि इन अर्थव्यवस्थाओं को बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी बन चुका है। समझ रखने वाला हर इंसान इस बात को मानेगा कि अगर आज कोई सरकार अपनी अर्थ प्रणाली (economy) में ब्याज़ से छुटकारा चाहे तो इस्लाम में इसकी पूरी तरह मनाही के बावजूद एक दिन में पूरी व्यवस्था से इसको नहीं हटाया जा सकता, इसके लिए एक क्रमिक प्रक्रिया को अपनाना होगा। इस दौरान ब्याज़ आधारित सौदों को भी बर्दाश्त किया जायेगा और इस तरह के मामलों के लिए अस्थायी (थोड़े वक़्त के लिए) कानून भी बनाये जायेंगे, जिस तरह कुरआन ने गुलामी की प्रथा को समाप्त करने की प्रक्रिया के दौरान अस्थायी निर्देश दिए। एक वैकल्पिक (alternative) आर्थिक व्यवस्था बनायीं जाएगी, इसके बिना अचानक से ब्याज़ को खत्म करने की जल्दी से पूरी व्यवस्था ढह जाएगी जो कि पूरे राज्य के लिए विनाशकारी होगा। इसी तरह के विनाश को रोकने के लिए चौदह सौ साल पहले इस्लाम ने गुलामी को खत्म करने के लिए क्रमिक कदम बढ़ाये।
विभिन्न चरणों में विभिन्न निर्देश दिए गए जिससे धीरे-धीरे समाज से गुलामी की बुराई दूर हो सकी।
यह निर्देश संक्षेप में:[1]
- अपने उतरने के शुरुआत से ही कुरआन ने गुलामों को आज़ाद कराने को एक महान पुण्य का दर्जा दिया है और लोगों से प्रभावी तरीके से इस करने का आग्रह (अपील) किया है। कुरआन के इस्तेमाल किये गए शब्दो فَكُّ رَقَبَة (गर्दनें छुड़ाना) से इसकी ज़बरदस्त अपील भाषा का ज्ञान रखने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है। इस तरह के भाव कुरआन में जहाँ भी आयें हैं उसके संदर्भ (पसमंज़र) से मालूम होता है कि अल्लाह को खुश करने का यह पहला और सबसे बड़ा कदम है।[2]
इसी तरह रसूलअल्लाह (स.व) ने मुसलमानों से इन शब्दों में गुलामों को छुड़ाने का आग्रह किया है: “जो भी एक मुसलमान गुलाम आज़ाद कराता है, उस गुलाम के हर अंग के बदले में अल्लाह आज़ाद कराने वाले का हर अंग नरक से सुरक्षित कर देता है।”[3]
- लोगों से आग्रह किया गया कि जब तक वह अपने गुलामों को आज़ाद ना कर दें तब तक वह उनसे भलाई का रवैया रखें। जिस तरह जहालत के दौर में मालिक का गुलामों पर अनियंत्रित (बेकाबू) अधिकार था वह खत्म किया गया। उन्हें बताया गया कि गुलाम भी इंसान हैं और इस नाते उनके भी अधिकार है जिनका उल्लंघन करने का हक़ किसी को नहीं है।
अबू हुरैरा (रज़ि.)रवायत करते हैं कि रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया: “एक गुलाम को खाने और कपड़ों का अधिकार है, और उससे किसी ऐसे काम के लिए नहीं कहना चाहिए जो उसके बस से बाहर हो।”[4]
अबू ज़र अल-गिफ्फारी (रज़ि.) रसूलअल्लाह (स.व) से रवायत करते है: “वह तुम्हारे भाई हैं। अल्लाह ने उन्हें तुम्हारा आज्ञाकारी बनाया है। तो जो तुम खाओ वही उन्हें खिलाओ, जो तुम पहनो वैसा ही उन्हें पहनाओ। और उनसे किसी ऐसे काम के लिए ना कहो जो उनके सामर्थ्य (बस) के बाहर हो और अगर कोई ऐसा काम आ जाए तो उसमें उनकी मदद करो।”[5]
इब्न उमर (रज़ि.) रसूलअल्लाह (स.व) से रवायत करते है: “जिसने भी एक गुलाम को थप्पड़ मारा या उसकी पिटाई की हो तो उसे उस गुलाम को आज़ाद करके इस पाप का प्रायश्चित करना चाहिए।”[6]
अबू मसूद (रज़ि.) कहते है: “मैं एक बार अपने गुलाम को पीट रहा था और मैंने अपने पीछे से आवाज़ सुनी: ‘अबू मसूद! अल्लाह तुम से ज़्यादा ज़ोर रखता है।’ मैंने मुड़ कर देखा तो रसूलअल्लाह (स.व) थे। मैंने तुरंत कहा: हे अल्लाह के रसूल! मैं अल्लाह के लिए इसे आज़ाद करता हूँ।’ रसूलअल्लाह (स.व) ने कहा: ‘अगर तुम ऐसा नहीं करते तो आग की सज़ा पाते।’”[7]
इब्न उमर (रज़ि.) से रवायत है कि एक बार एक व्यक्ति ने रसूलअल्लाह (स.व) से पूछा: “हमें कितनी बार अपने सेवकों को माफ कर देना चाहिए ?” [इस पर] रसूलअल्लाह (स.व) चुप रहे। उसने दुबारा पूछा और रसूलअल्लाह (स.व) इस बार भी चुप रहे। तीसरी बारे पूछे जाने पर आप (स.व) ने फरमाया: “एक दिन में सत्तर बार।”[8]
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गैर इरादतन हत्या, ज़िहार, और इसी तरह के अन्य मामलों में गुलाम को छुड़ाना प्रायश्चित्त और सदका (दान) बताया गया।[9]
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निर्देश दिया गया कि जो गुलाम पुरुष और गुलाम महिलाएं शादी करने में सक्षम (काबिल) हैं उनकी शादी करा दी जाये ताकि वह नैतिक और सामाजिक दोनों रूप से समाज के बाकी लोगों के बराबर हो सकें।[10]
- अगर कोई व्यक्ति किसी की गुलाम महिला से शादी करना चाहता तो उस मामले में बड़ी सावधानी बरती गयी क्योंकि इससे स्वामित्व (मालिकाना) और वैवाहिक अधिकारों के बीच टकराव हो सकता था। इस तरह के लोगों से कहा गया कि अगर वह किसी आज़ाद महिला से शादी करने के हालात में नहीं हैं तो वह किसी ऐसी गुलाम महिला से जो कि मुसलमान और पवित्र हो, उसके मालिक की इजाज़त लेने के बाद शादी कर सकते हैं। इस तरह की शादी में उन्हें उन महिलाओं के महर देने होंगे जिससे उन्हें आज़ाद महिलाओं के बराबर लाया जा सके। कुरआन में आता है:
وَمَن لَّمْ يَسْتَطِعْ مِنكُمْ طَوْلًا أَن يَنكِحَ الْمُحْصَنَاتِ الْمُؤْمِنَاتِ فَمِن مَّا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُم مِّن فَتَيَاتِكُمُ الْمُؤْمِنَاتِوَاللَّهُ أَعْلَمُ بِإِيمَانِكُمبَعْضُكُم مِّن بَعْضٍفَانكِحُوهُنَّ بِإِذْنِ أَهْلِهِنَّ وَآتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ بِالْمَعْرُوفِ مُحْصَنَاتٍ غَيْرَ مُسَافِحَاتٍ وَلَا مُتَّخِذَاتِ أَخْدَانٍفَإِذَا أُحْصِنَّ فَإِنْ أَتَيْنَ بِفَاحِشَةٍ فَعَلَيْهِنَّ نِصْفُ مَا عَلَى الْمُحْصَنَاتِ مِنَ الْعَذَابِذَٰلِكَ لِمَنْ خَشِيَ الْعَنَتَ مِنكُمْوَأَن تَصْبِرُوا خَيْرٌ لَّكُمْوَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
[٤: ٢٥]और तुममें से जो आज़ाद मुसलमान औरतों से निकाह करने कि हैसियत में ना हों, उन्हें चाहिए कि वह तुम्हारी उन मुसलमान लौंडियों से निकाह कर ले जो तुम्हारे अधिकार में हों। [और यह हक़ीकत धयान में रखें कि] अल्लाह तुम्हारे ईमान को खूब जानता है, तुम सब एक ही जिंस से हो। सो उनके मालिकों की इजाज़त से उन के साथ निकाह कर लो और दस्तूर के मुताबिक उनके महर भी उनको दो, इस शर्त के साथ कि वह पाक दामन रही हों, बदकारी करने वाली और चोरी-छुपे आशनाई करने वाली ना हों…..
यह इजाज़त तुम में से उनके लोगों के लिए है जिन्हें गुनाह में पड़ जाने का अंदेशा हो। वरना सब्र करो तो तुम्हारे लिए बेहतर है और [भरोसा रखो कि सावधानी के बाद भी कोई गलती हो जाती है तो] अल्लाह माफ़ करने वाला है, हमेशा दयावान है। (4:25)
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ज़कात में एक हिस्सा فِي الرِّقَابِ (गर्दनें छुड़ाने) के लिए रखा गया ताकि गुलामी को खत्म करने में सरकारी खज़ाने से मदद मिल सके।[11]
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व्यभिचारिता (ज़िना) को अपराध करार दिया गया जिसके नतीजे में वह वेश्यालय जो गुलाम औरतों के आधार पर चल रहे थे बंद हो गए, और अगर किसी ने गुप्त रूप से यह कारोबार करने की कोशिश की तो उन्हें मिसाल बनाने वाली सज़ा (exemplary punishment) दी गयी।
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लोगों को बताया गया कि वह सब अल्लाह के गुलाम हैं और عبد गुलाम पुरुष और أمة गुलाम महिला के स्थान पर فاتي लड़का/आदमी और فتاه लड़की/औरत शब्द इस्तेमाल करें ताकि मानसिकता में बदलाव आये और पुरानी चली आ रही धारणाएं बदली जा सकें।[12]
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आखिरी पैगंबर जब आये तो गुलामी की प्रथा का एक बड़ा स्रोत (वजह) युद्ध के कैदी हुआ करते थे। जब ऐसी स्थिति मुसलमानों के लिए पैदा हुई तो कुरआन ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उन्हें गुलाम नहीं बनाया जा सकता बल्कि कैदी बनाकर ही रखा जायेगा। इसके बाद भी दो ही सूरते होंगी: उन्हें या तो मुक्ति धन (फिदया) लेकर छोड़ दिया जायेगा या बिना मुआवज़े के एहसान के तौर पर। इसके अलावा कोई और सूरत नहीं है।
- अंत में यह हुक्म दिया गया:
وَالَّذِينَ يَبْتَغُونَ الْكِتَابَ مِمَّا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ فَكَاتِبُوهُمْ إِنْ عَلِمْتُمْ فِيهِمْ خَيْرًاوَآتُوهُم مِّن مَّالِ اللَّهِ الَّذِي آتَاكُمْ
[٢٤: ٣٣]और तुम्हारे गुलामों में से जो मुकातबत चाहे, उनसे मुकातबत कर लो। अगर तुम उनमें योग्यता पाओ [ताकि वह भी पवित्रता में आगे बढ़ें]। और [इसके लिए अगर ज़रूरत हो तो मुसलमानों] उन्हें उस माल में से दो जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है। (24:33)
उपर दी गयी सूरह नूर की आयत में मुकातबत का निर्देश दिया गया है। इसका मतलब है कि एक गुलाम अपने मालिक के साथ अनुबंध (contract) करेगा जिसके अनुसार उसे तय समय के अंदर एक तय रकम चुकानी होगी या फिर अपने मालिक के लिए कोई विशिष्ट कार्य (ख़ास काम) करना होगा। एक बार इन दोनों में से कोई एक काम वह कर देता है तो फिर वह आज़ाद होगा आसान लफ़्ज़ों में कहें तो उसे साबित करना होगा कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। उल्लेख की गयी आयत में मुसलमानों को निर्देश दिया गया है कि अगर गुलाम यह अनुबंध करना चाहे और आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बनने की काबिलीयत रखता हो तो मुसलमानों को यह स्वीकार करना होगा। इसके बाद यह कहा गया है कि मुसलिम राज्य को सरकारी खज़ाने में से, जिसको यहाँ अल्लाह का धन कहा गया है ऐसे गुलामों की मदद करनी चाहिए। आयात के शब्दों से साफ़ है कि मुकातबत का हक़ गुलाम पुरुषों की तरह गुलाम महिलाओं को भी दिया गया था। दूसरे शब्दों में असल में यह एलान था कि गुलाम अब अपना भाग्य खुद तय कर सकते हैं और जब चाहें खुद को आज़ाद करा सकते हैं।
[1]. देखें: ग़ामिदी, मीज़ान, 479-482।
[2]. कुरआन 90:13।
[3]. सहीह मुसलिम, भाग. 2, 1147, (न. 1509)।
[4]. पूर्वोक्त, भाग.3, 1284, (न. 1662)।
[5]. पूर्वोक्त, भाग.3, 1282, (न. 1661)।
[6]. पूर्वोक्त, भाग.3, 1657, (न. 1279)।
[7]. पूर्वोक्त, भाग.3, 1659, (न. 1281)।
[8]. अबू दाऊद भाग.4, 341, (न. 5164)।
[9]. कुरआन: 4:92, 58:3, 5:89।
[10]. कुरआन: 24:32-33।
[11]. कुरआन: 9:60।
[12]. सहीह मुस्लिम भाग.4, 1764, (न. 2249)।