आम तौर पर यह माना जाता है कि ललित कलाओं (fine arts) को लेकर इस्लाम का रवैया बहुत उत्साहजनक या बहुत अच्छा नहीं है। इस्लाम इंसान की फितरत में मौजूद सौन्दर्य-बोध (जमालियात और खूबसूरती के एहसास) को ना ही ज़्यादा महत्व (अहमियत) देता है और ना उसे विकसित होने का मौका देता है, उदाहरण के तौर पर इस्लाम में गाना और संगीत पूरी तरह मना है।
बदकिस्मती से इस्लाम के बारे में यह एक गलत धारणा (तसव्वुर) है जो कि बड़ी मशहूर हो चली है। इस्लाम के स्रोतों (माखज़) पर नज़र डालें तो यह बात सही साबित नहीं होती।
इस मामले में सबसे पहले तो शरीअत को समझने के लिए दो उसूली बातों को ध्यान में रखना ज़रूरी है।
पहली, इस्लाम के अंदर किसी भी चीज़ को हराम सिर्फ कुरआन कर सकता है। जहाँ तक हदीसों का सवाल है वह सिर्फ इतना करेंगी कि कुरआन में मौजूद किसी बात की व्याख्या कर दें, उसे और तफसील से बयान कर दें या फिर कुरआन में ही दिए हुए किसी उसूल से क्या नतीजे निकलेंगे, उसके स्वाभाविक नतीजे के तौर पर क्या बात सामने आएगी यह भी हदीसें बयान कर देंगी। हदीसें जैसे कि हम पहले भी बात कर चुके हैं असल में तारीख का रिकार्ड (इतिहास) हैं यह इस्लाम का स्वतंत्र स्रोत (एक अलग और आज़ाद माखज़) नहीं हैं। हदीस से जब कोई बात ली जाएगी तो यह ज़रूरी है कि कुरआन, सुन्नत या इल्म और अक्ल के कायम उसूलों के अंदर उसकी कुछ बुनियाद हो। इसलिए अगर हदीसों के ज़रिये कोई चीज़ हराम बताई जाएगी तो यह ज़रूरी है कि इस्लाम के मूल स्रोतों (कुरआन और सुन्नत) में उसकी बुनियाद तलाशी जाये।
दूसरे, अगर हदीसों में कोई ख़ास मामला विस्तार से बयान हुआ है तब यह ज़रूरी हो जाता है कि उस मामले पर सारी हदीसों को जमा करके उनका विश्लेषण (तजज़िया) किया जाये ताकी उस विषय पर पूरी बात सामने आ सके। कोई बात किस संदर्भ और पसमंज़र में कही गयी थी और उससे क्या मकसद था इसको मालूम करने के लिए यह बेहद ज़रूरी है।
इन दोनों उसूलों की रौशनी में, यह साफ़ है कि:
1. जहाँ तक कुरआन की बात है तो उसमें गाने और संगीत के पूरी तरह हराम होने के बारे में कहीं कोई बात नहीं है। बल्कि इसके उलट तथ्य यह है कि पैगंबर दाऊद (स.व) पर अल्लाह की तरफ से आसमानी किताब ज़बूर (Psalms) उतारी गई थी जो कि बुनियादी तौर पर अल्लाह के स्तुति गीतों (हम्द) का संग्रह है। दाऊद (स.व) ज़बूर में उतरे विभिन्न स्तुति गीतों को अपने साज़ पर गाया करते थे।
ज़बूर में आता है:
आओ हम यहोवा के लिये ऊंचे स्वर से गाएं, अपने उद्धार की चट्टान का जयजयकार करें! (भजन संहिता[1] 95:1)
यहोवा के लिये एक नया गीत गाओ, हे सारी पृथ्वी के लोगों यहोवा के लिये गाओ! (भजन संहिता, 96:1)
हे परमेश्वर, मैं तेरी स्तुति का नया गीत गाऊंगा; मैं दस तार वाली सारंगी बजा कर तेरा भजन गाऊंगा। (भजन संहिता, 144:9)
कुरआन इस बात का हवाला देता है:
وَسَخَّرْنَا مَعَ دَاوُودَ الْجِبَالَ يُسَبِّحْنَ وَالطَّيْرَ ۚ وَكُنَّا فَاعِلِينَ
[٧٩:٢١]और पहाड़ों और परिंदों को हमने दाऊद का हमनवा कर दिया था। वह [उसके साथ] खुदा की तस्बीह (स्तुति )करते थे और [उनके लिए यह] हम ही करने वाले थे। (21:79)
2. अगर कुरआन में गाने और संगीत के पूरी तरह हराम होने के बारे में कोई बात नहीं है तो यह ज़रूरी हो जाता है कि इस विषय की सारी हदीसों का फिर से विश्लेषण और जाँच की जाये ताकि यह देखा जा सके की इनको ठीक तरह से समझा गया है या नहीं।
गीत-संगीत से संबंधित सभी हदीसों पर गौर करने के बाद सही तस्वीर यह सामने आती है कि गाने बजाने की महफ़िलों में बहुत से आपत्तिजनक तत्व (एतराज़ के काबिल चीज़ें) हुआ करते थे। खास तौर पर बेहयाई, अशिष्टता और शराब पीना-पिलाना। नशे में डूबी महफ़िलों के सामने गुलाम लौंडियाँ नृत्य (नाच) किया करती, और बेशर्मी और बेहयाई के आलम में अश्लीलता की सारी हदें पार हुआ करती थीं। यह सब लोगों के अंदर गलत तरह के जज़्बात भड़काने और उन्हें कामुकता में डुबोने का साधन (ज़रिया) हुआ करते थे। सही बुखारी में ऐसी ही एक घटना बयान हुई है जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि गाने-बजाने की इन महफ़िलों में क्या कुछ हुआ करता होगा। यह वाकया बद्र की जंग के ठीक बाद का है:
हुसैन इब्ने अली से रवायत हैं कि अली (रज़ि.) ने फरमाया “बद्र में हासिल हुए माल में से मुझे मेरे हिस्से के तौर पर एक ऊंटनी दी गयी। इसके अलावा, रसूलअल्लाह (स.व) ने ख़ुम्स में से एक ऊंटनी और दी। जब मेरी शादी रसूलअल्लाह (स.व) की बेटी फ़ातिमा से तय हुई तो मैंने क़य्नुका कबीले के एक सुनार के साथ सौदा किया कि वह मेरे साथ चलेगा और हम एक खास तरह की घास ऊँटों पर लाद कर लायेंगे। इस घास को सुनारों में बेचकर मैं अपने वलिमें की दावत देना चाहता था। इसके लिए मैंने रस्सियों और खोगीर (बोझा लादने वाली) का इंतज़ाम किया। ऊंटनीयां अंसार कबीले के एक व्यक्ति के यहाँ बैठा रखीं थी। जब मैं वहां गया तो मैंने देखा कि किसी ने ऊंटनीयां को काट कर उनका कलेजा निकाल रखा था। यह देख कर मैं अपने आँसू रोक नहीं पाया। मैंने लोगों से पूछा कि इसका ज़िम्मेदार कौन है ? उन्होंने जवाब दिया: ‘हमज़ा इब्ने अब्द अल्-मुत्तलिब; वह इस घर में अंसार के कुछ लोगों के साथ बैठकर मदिरा पी रहे हैं। उनके दोस्तों के अलावा वहां एक गाने वाली भी है और यह घटना इस तरह हुई है कि गायिका ने गाते हुए यह शब्द कहे: “हमज़ा! उठो और इन जानदार ऊंटनीयों को कत्ल कर दो,” यह सुनकर वह फ़ौरन तलवार लेकर उनपर झपटे और उन ऊंटनीयों का कूबड़ उड़ा दिया और पेट काट कर कलेजा बाहर निकाल लिया।’[2]
दूसरे शब्दों में कहें तो संगीत की महफ़िलों पर पाबंदी गाने और संगीत की वजह से नहीं बल्कि इनके अंदर मौजूद इस तरह के आपत्तिजनक तत्व और बदअख्लाकी की वजह से थी। इसी वजह से कुछ हदीसों में संगीत वाद्य यंत्रों (साज़) की भी निंदा की गयी हैं।[3] इनसे बेहयाई और अश्लीलता में डूबी महफिलें सजाई जाती थीं। इनके सही और सकारात्मक इस्तेमाल पर कभी पाबंदी नहीं लगाईं गयी। ऐसी हदीसें मौजूद हैं जिनसे यह बात सामने आती है कि गाने और संगीत को रसूलअल्लाह (स.व) ने मना नहीं किया।
उर्वाह से रवायत हैं कि आयशा (रज़ि.) ने फरमाया: “एक बार रसूलअल्लाह (स.व) मेरे पास आये, इस मौके पर दो गुलाम लड़कियां बुआथ की जंग से जुड़े गाने गा रहीं थीं। आप (स.व) बिस्तर पर लेट गए और दूसरी तरफ रुख कर लिया। [इसी दौरान], अबू बक्र (रज़ि.) आ गए और इस बात पर मुझे डांटा और कहा: ‘रसूलअल्लाह (स.व) की मौजूदगी में यह शैतानी साज़ क्यों?’ इस पर रसूलअल्लाह (स.व) पलटे और फरमाया: ‘उन्हें छोड़ दो [और गाने दो]’। जब अबू बक्र (रज़ि.) किसी और काम में व्यस्त हो गए तब मैंने उन लड़कियों को जाने के लिए इशारा किया और वह वहां से चली गयीं। यह ईद का दिन था।[4]
इस हदीस से यह साफ़ हो जाता है कि रसूलअल्लाह (स.व) ने ईद के दिन गाने और संगीत बजाने को मना नहीं किया। सिर्फ इतना ही नहीं के उन्होंने मना नहीं किया बल्कि उन्होंने अबू बक्र (रज़ि.) को भी इस बात से रोक दिया कि वह लड़कियों को गाना बंद करने को कहें।
निम्नलिखित हदीस से पता चलता है उस समय में डफली के साथ गाने का आम चलन था, उसको भी रसूलअल्लाह (स.व) ने मना नहीं किया:
अल्-राबी बिन्ते माउध फरमाती हैं: “जब मैं दुल्हन बनकर अपने पति के यहाँ गयी, रसूलअल्लाह (स.व) मेरे पास आये और जिस तरह से आप बैठे हैं ऐसे ही बिस्तर पर बैठ गए। उस समय हमारी लौंडियाँ जंग-ए-बद्र के शहीदों के सम्मान में डफली पर शोक गीत (मर्सिया) गा रहीं थीं, एक लौंडियाँ ने गाते हुए यह शब्द कहे: ‘हमारे बीच मौजूद हैं अल्लाह पैगंबर जो जानते हैं कि भविष्य में क्या होने वाला है।’ इस पर रसूलअल्लाह (स.व) ने फरमाया: यह ना कहो बल्कि वही गाओ जो पहले गा रही थीं।’”[5]
कुछ हदीसों से यह पता चलता है कि रसूलअल्लाह (स.व) के पास अन्जाशाह नामक एक ऊँट चालक हुआ करते थे। वह ऊँटों को तेज़ दोड़ाने के लिए उन्हें अग्रसर करने वाली धुनें गाया करते थे। एक सफ़र के दौरान जब उनके गाने की वजह से ऊँट कुछ ज़्यादा तेज़ी से चले तो रसूलअल्लाह (स.व) ने उन्हें प्यार भरे लहजे में झिड़कते हुए कहा कि ऊँट पर सवार महिलाओं के बारे में सोचें कहीं ऊँट की तेज़ गति से वह गिर ना जाएं:
अनस सूचित करते हैं की रसूलअल्लाह (स.व) के पास अन्जाशाह नामक एक ऊँट चालक थे जिनकी बड़ी मधुर आवाज़ थी। [एक सफ़र के दौरान] रसूलअल्लाह (स.व) ने उनसे कहा: “धीरे गाओ अन्जाशाह, कहीं तुम इन नाज़ुक नगीनों को तोड़ ना दो।” क़ताज़ह ने साफ किया है कि इससे मतलब नाज़ुक महिलाएं था।[6]
इस विश्लेषण (तजज़िये) की रौशनी में संगीत के ऊपर पाबंदी को आराम से समझा जा सकता है: सिर्फ वह गाने और संगीत हराम किए गए हैं जिनमें अनैतिकता (बदअख्लाकी) मौजूद हो। संगीत के अपने अंदर बुराई होने की वजह से उसकी निंदा नहीं की गई है बल्कि उस पर तब रोक लगाई गई है जब वह इंसान के अंदर गलत और अश्लील भावनाएं भड़काने का ज़रिया बनने लगे। अल्लाह के दिए गए दीन का असल मकसद इंसान को हर बुराई से पाक कर उसे पवित्र करना है (तज़किया-ए-नफ्स)। हर वह साधन जो इंसान को बुराई और अनैतिकता की तरफ ले जाने लगे उसे रोकना ज़रूरी हो जाता है। इसीलिए, रसूलअल्लाह (स.व) ने सख्ती अपनाते हुए संगीत और नृत्य की महफ़िलों पर पाबंदी लगा दी थी ताकि फिर से स्वस्थ समाज (अच्छे माशरे) का निर्माण किया जा सके।
संक्षेप में कहा जाये तो, गाने और संगीत पर पाबंदी इस कला के कुछ विशिष्ट (खास) रूपों से संबंधित है; अगर इनमें अश्लीलता, बेहयाई और या कोई और अनैतिकता नहीं है तो फिर इनको हराम नहीं कहा जा सकता।