सहरी से पहले क़ुरआन मजीद खोला। सूराह अल् बक़रा सामने थी। संसार का परवरदिगार यहूदियों और ईसाइयों पर प्रमाण स्थापित (हुज्जत कायम) कर रहा है। इसी के साथ ही इब्राहीम की नस्ल की दूसरी शाख़ा यानी बनी-इस्माईल (इस्माइल की औलाद) में से एक “मुसलमान-उम्मत” की नींव रखने का भी ऐलान हो रहा है। इसमें यहूद के गुनाहों का ज़िक्र है और में इसमें अपना चेहरा देख रहा हूँ। इसी लम्हे यह सवाल मेरे सामने आ खड़ा हुआ।
“अल-बयान” का अध्ययन कर (पढ़) रहा हूँ। यह क़ुरआन का अनुवाद (तर्जुमा) है जो कि मोहतरम उस्ताद जावेद अहमद साहिब ग़ामदी द्वारा किया गया है । यह अनुवाद एक बिलकुल नयी दुनिया की खोज है। में बरसों से “तफ़हीम उल क़ुरआन” का प्रशंसक रहा हूँ। सय्यद अबुल आला साहिब मौदूदी ने इरादा किया कि कुरआन की साफ और स्पष्ट अरबी का अनुवाद वैसी ही साफ और स्पष्ट उर्दू में किया जाये। अल्लाह तआला ने उन्हें बहुत प्रभावशाली क़लम अता फ़रमाया था। उन्होनें एक उर्दू पढ़ने वाले का क़ुरआन मजीद से इस तरह जुड़ाव पैदा किया कि वह अल्लाह की किताब को अपने दिल पर नाज़िल होता महसूस करने लगा। क़ुरआन मजीद से जो दिली ताल्लुक़ मौलाना मौदूदी द्वारा किए गए क़ुरआन के अनुवाद से पैदा हुआ, वह मुझे “अल-बयान” तक ले आया।
इमाम फराही पर जिस तरह कुरआन मजीद के राज़ खुले है, “अल-बयान” उसी राह में तीसरा कदम है। इमाम हमीदउद्दीन फ़राही ने मदरसा-ए-इस्लाह के हुजरे में क़ुरआन मजीद की जो हिकमतें खोजी, वह इस सिलसिले का पहला क़दम था। उनका ज़्यादातर काम क़ुरआन पर ग़ौर करने के उन उसूलों पर है, जिनकी बुनियाद पर अल्लाह की किताब के अर्थ को समझने की राह आसान हो जाये। इन्हीं उसूलों की बुनियाद पर उन्होंने कुरआन मजीद की तफ़सीर (भाष्य) लिखने की शुरुवात की। अपने जीवनकाल में वह कुरआन की चंद आख़िरी सूरतों की तफ़सीर ही लिख पाए। उनके शागिर्द इमाम अमीन अहसन इस्लाही को अल्लाह ने हौसला दिया और उन्होंने अपने उस्ताद के काम को आगे बढ़ाया, और इस तरह “तदब्बुरे क़ुरआन” के नाम से तफ़सीर का ताजमहल वजूद में आया। मौलाना इस्लाही से यह रौशनी जावेद अहमद ग़ामदी साहिब को ट्रान्सफर हुई। अल्लाह तआला के करम से पाँच-जिल्दों (Five-Volumes) में क़ुरआन मजीद का यह अनुवाद भी पूरा हो गया।
तफ़सीर (भाष्य) की इस पद्धति की वैसे तो कई विशेषताएँ हैं लेकिन इनमें दो बातें काफी अहम है। पहली यह कि क़ुरआन मजीद की भाषा, साफ और स्पष्ट अरबी है जो “उम्मुल क़ुरा मक्का” में बोली जाती थी। इस भाषा को जाने बग़ैर क़ुरआन के राज़ नहीं खुलते। और दूसरा ये कि, क़ुरआन मजीद का एक नज़्म है (यानी संबद्धता है)। ये नज़्म आयात में भी है, सूरतों में भी है और पूरे क़ुरआन में भी है। इसका मतलब यह है कि क़ुरआन मजीद कोई अलग-अलग ज्ञानपूर्ण (इल्मी) कथनों का संकलन (मजमुआ) मात्र नहीं है बल्कि वह तो एकीकरण का भाव लिए हुए एक संबद्ध (coherent) किताब है। इस संबद्धता (coherence) को खोजे बग़ैर क़ुरआन के वास्तविक अर्थ (असल मायनों) तक पहुँच पाना मुमकिन नहीं। हमारी तफ़सीरी रिवायत के तमाम विद्वानों ने इन बातों को स्वीकार किया है। इमाम फ़राही का कमाल यह है कि उन्होंने उसे साईंस (विद्या) बना दिया।
मौलाना अमीन अहसन इस्लाही ने क़ुरआन मजीद के इस नज़्म को अनुवाद में नहीं बल्कि तफ़सीर में उजागर किया है। अगर तदब्बुर क़ुरआन का सिर्फ अनुवाद पढ़ा जाये तो आयात का एक दूसरे से संबंध साफ नहीं होता। इसके लिए उनकी तफ़सीर (भाष्य) को भी पढ़ना पड़ता है। बेशक तफ़सीर एक संजीदा विद्यार्थी के लिए अनमोल खज़ाना है लेकिन एक आम पाठक जो विस्तृत अध्ययन (तफ्सीली मुताले) की कठिनाई नहीं उठा सकता वह क़ुरआन की इस नेमत से वंचित रह जाता है। इसलिए ये ज़रूरत बाक़ी थी कि क़ुरआन मजीद का नज़्म ख़ुद अनुवाद से स्पष्ट (वाज़े) हो जाये और आम पढ़ने वाला भी अल्लाह की किताब के इस सुंदर बयान को जान सके। “अल-बयान” ने इस कमी को पूरा कर दिया है। कुरआन की संबद्धता की खोज के दौरान शागिर्द कई बार अपने उस्ताद से अलग परिणामों (नतीजों) तक पहुंचा। जैसे उस्ताद को अपने उस्ताद से मतभेद करना पड़ा था। इलम की रिवायत ऐसे ही आगे बढ़ती है।
ग़ामदी साहिब ने “अल-बयान” की प्रस्तावना में लिखा है: “यह क़ुरआन मजीद का उर्दू अनुवाद है। वैसे तो इस दिव्य आसमानी किताब के इस सुंदर बयान को किसी दूसरी भाषा में अनुवाद करना मुमकिन नहीं। इसके बावजूद मैंने इस अनुवाद में यह कोशिश की है के इस पैग़ाम की संबद्धता (नज़्म) को क़ायम रखते हुए उर्दू भाषा में इसका अनुवाद कर दूं। क़ुरआन के अनुवादों की तारीख़ में ये इस प्रकार का पहला अनुवाद है जिसमें क़ुरआन की संबद्धता (नज़्म) उसके अनुवाद ही से स्पष्ट हो जाती है। इसके लिए किसी भाष्य (तफसीर) की ज़रूरत नहीं रहती।
इस्लाम इसके सिवा कुछ नहीं कि आख़िरत (परलोक) से ख़बरदार करने वाला पैग़ाम है। इसी की ख़बर देने और इसी की आवाज़ लगाने के लिए अल्लाह के रसूल और नबी नियुक्त किए जाते रहे। हर रसूल नबी होता है मगर हर नबी रसूल नहीं होता। रसूल ज़मीन पर अल्लाह की अदालत बन कर आता है और रसूल के मुख़ातब क़ौम के लिए वह क़यामत इस दुनिया में बरपा कर दी जाती है जो एक दिन सारे इन्सानों के लिए बरपा होनी है। रसूल प्रमाण स्थापित करने का नाम है। हज़रत मुहम्मद (स) एक रसूल थे। अल्लाह ने आपकी सूरत में आख़िरी बार प्रमाण स्थापित कर दिया। क़ुरआन मजीद असल में नबी के अपनी क़ौम को ख़बरदार करने की दास्तान है। इस दास्तान के कई चरण हैं:
इंज़ार, इंज़ार-ए-आम, इत्माम-ए-हुज्जत, हिज्रत-ओ-बरात और रसूल की मुख़ातब क़ौम के लिए जज़ा-ओ-सज़ा का बयान।
मौलाना इस्लाही के अनुसार, अपने विषय के हिसाब से क़ुरआन मजीद के “सात समूह” हैं। उनका कहना है कि क़ुरआन मजीद ने ख़ुद को “सबा अल-मसानी” कहकर इस तरफ इशारा कर दिया है (सूराह अल हिज्र)। सात जोड़े (मसानी) से तात्पर्य ये है कि हर समूह में सूरतें जोड़े की सूरत में हैं। आमतौर पर हर समूह एक या एक से ज़्यादा मक्की सूरतों से शुरू होता और एक या एक से ज़्यादा मदनी सूरतों पर ख़त्म हो जाता है। ज़्यादातर सूरतें जोड़े से हैं जैसे सूरह अल बक़रा और सूरह आले-इमरान।
क़ुरआन मजीद की संबद्धता किस तरह उसके अर्थ (मायनों) को प्रभावित करता है, इसका अंदाज़ा “अल-बयान” के अध्ययन से होता है। यह उम्मत इस बात पर एकमत है कि क़ुरआन मजीद का मौजूदा क्रम (तरतीब) अल्लाह की तरफ़ से है और यह वह क्रम नहीं है जिसमें क़ुरआन अवतरित (नाज़िल) हुआ। ज़ाहिर है कि यह बात किसी हिक्मत से ख़ाली नहीं है। इसी हिक्मत को खोजने का नाम “नज़्म-ए-क़ुरआन” है। हमारी तफ़सीरी रिवायत में इसे सैद्धांतिक (उसूली) तौर पर कुबूल तो किया है लेकिन इसके बावजूद इस नज़्म को खोजने की कोई संजीदा कोशिश सामने नहीं आई। यह नज़्म खोजा नहीं जा सकता जब तक “उम्मुल क़ुरा मक्का” की भाषा पर अच्छी पकड़ ना हो। लिहाज़ा इस ज़बान के लहजे और ढंग से परिचित होना ज़रूरी है। इमाम फ़राही ने “असालीब उल-क़ुरआन” जैसी किताबें लिख कर ये बात साफ कर दी।
यह आसान काम नहीं था। इसके लिए इमाम फ़राही जैसे विद्वान शख़्स की पूरी उमर लग गई। इमाम इस्लाही ने आधी सदी इसको भेंट कर दी। जावेद ग़ामदी साहिब की तन्हाइयाँ भी लगभग पचास साल उसी पर चिंतन-मनन करने में गुज़र हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि “अल-बयान” तीन नसलों की मेहनत का नतीजा है। लोग ऐसा समझते है कि यह कोई चंद सालों का मामला है। जावेद अहमद ग़ामदी किसी टीवी चैनल की खोज का नाम नहीं है बल्कि पचास साल की रियाज़त का नतीजा हैं। उनकी जिन राय पर आज लोग अपने अल्प-ज्ञान (कम इल्मी) की वजह से टिप्पणियाँ करते हैं उनमें से ज़्यादातर 1970 के दूसरे दौर में ही सामने आ चुकी थीं। 1988 ई0 से तो मैं खुद सीधे तौर पर उनसे परिचित हूँ।
“अल-बयान” में संक्षिप्त टीका भी हैं। लेकिन अनुवाद बड़ी हद तक भाष्य की ज़रूरत महसूस नहीं होने देता। यह बात और है कि कोई शख़्स किसी क़ानून या भाषा-संबंधी मामलों पर अधिक व्याख्या जानना चाहता हो। इन दिनों सूरा बक़रा सामने है। यहूदियों के गुनाहों का वर्णन है। कैसे उन्होंने अल्लाह तआला से एक वचन बाँधा और तोड़ा। बार-बार बाँधा और बार-बार तोड़ा। अनुवाद में नज़्म इतना स्पष्ट है कि कहीं भी बात का सिलसिला नहीं टूटता। मालूम हो जाता है कि कब संसार का परवरदिगार यहूद से मेरी तरफ़ रुख़ करता है और मुझे सीख देते हुए इस बात का एहसास दिलाता है कि मैंने भी अपने अल्लाह से एक वचन बांध रखा है।
क्या मुझे इसका एहसास है। यह रमज़ान का महीना हैं और मेरा मालिक मेरी तरफ़ ख़ासतौर से ध्यान दे रहा है और मैं कहाँ हूँ?
- खुर्शीद नदीम
- अनुवाद: आकिब खान