कुछ लोगों मानते हैं कि रसूलअल्लाह (स.व) द्वारा किया गया हर काम सुन्नत है।
इस अवधारणा (तसव्वुर) का विश्लेषण करते हुए ग़ामिदी साहब लिखते हैं:[1]
कुरआन में यह बात बिलकुल साफ़ है कि अल्लाह के पैगंबर उसका दीन लोगों तक पहुँचाने के लिए आये, उनके इस पैगंबर होने की क्षमता में (पैगंबर की हैसियत से) उनके विचारों और कार्यों का दायरा सिर्फ दीन ही था। दीन के अलावा दुनिया के हर मामले में रहनुमाई करना उनका मकसद नहीं होता। इसमें कोई शक नहीं कि अपने पैगंबर होने के अलावा वह इब्राहिम इब्न आज़र, मूसा इब्न इमरान, इसा इब्न मरियम और मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह की हैसियत में इंसान भी थे लेकिन अपनी इंसानी हैसियत में उन्होंने अपने अनुयायियों, अपने मानने वालो से कभी आज्ञापालन (इताअत) की मांग नहीं की। उनके सभी हुक्म और मांगे उनके पैगंबर होने की हैसियत तक ही सीमित थी, और इस हैसियत में जो कुछ उन्हें दिया गया वह दीन था, इसलिए लोगों तक दीन पहुंचा देना ही उनकी ज़िम्मेदारी थी:
شَرَعَ لَكُم مِّنَ الدِّينِ مَا وَصَّىٰ بِهِ نُوحًا وَالَّذِي أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ وَمَا وَصَّيْنَا بِهِ إِبْرَاهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَىٰ أَنْ أَقِيمُوا الدِّينَ وَلَا تَتَفَرَّقُوا فِيهِ
[٤٢: ١٣]
अल्लाह ने तुम्हारे लिए वही दीन तय किया है जिसकी हिदायत उसने नूह को दी और जिसकी वही, [ऐ पैगंबर], हमने तुम्हारी तरफ की है और जिसका आदेश हमने इब्राहीम और मूसा और ईसा को दिया कि [अपनी ज़िन्दगी में] इस दीन को कायम रखो और इसमें भेद न डालो। (42:13)
अब, यह ज्ञात इतिहास (मालूम तारीख) है कि रसूलअल्लाह (स.व) ने अपनी ज़िन्दगी में युद्ध के समय तीर-तलवार जैसे हथियारों का इस्तेमाल किया, ऊंट की सवारी की, खजूर के पेड़ के तनों से मस्जिद की छत का निर्माण किया, वह खाना खाया जिसका अरबी समाज में चलन था और उसके लिए अपनी पसंद-नापसंद भी ज़ाहिर की, वह पोशाक भी पहनी जिसका अरब में प्रचलन था और इसमें भी उनकी व्यक्तिगत (ज़ाती) पसंद शामिल थी; लेकिन इसमें से किसी एक चीज़ को भी सुन्नत नहीं कहा जा सकता, ना ही कोई विद्वान इन्हें सुन्नत कहता है।
एक मौके पर खुद रसूलअल्लाह (स.व) ने फरमाया :
मैं भी एक इंसान हूँ। जब मैं तुम्हें तुम्हारे दीन के बारे में कोई हुक्म दूं तो वह मुझसे ले लो और जब मैं किसी बारे में अपनी खुद की कोई राय दूं [किसी ऐसी चीज़ के बारे में जो इस दायरे से बाहर है], तब मेरी हैसियत इस मामले में एक इंसान से ज़्यादा नहीं… मेरा किसी चीज़ के बारे में अंदाज़ा था।[2] मुझे किसी ऐसी चीज़ के लिए जवाबदेह ना पकड़ना जो राय और अंदाज़े पर आधारित हो। हालाँकि, अगर में अल्लाह की तरफ से कुछ कहूँ तो वह मुझसे ले लो क्योंकि मैं अल्लाह की तरफ कभी झूठ नहीं गढ़ूंगा… अपने सांसारिक (दुनियावी) मामलों को तुम अच्छी तरह जानते हो।[3]
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद