अपने मज़मून (विषय-वस्तु) के लिहाज़ से कुरआन एक रसूल की सरगुज़श्त-ए-इंज़ार[1] है, यानी अल्लाह के रसूल की दावत, उसके मुख्तलिफ मराहिल (विभिन्न चरण) और उसमें पेश आने वाले नतीजों का बयान है। मुहम्मद (स.व) के बारे में यह मालूम है कि आप नबी होने के साथ रसूल भी थे। अल्लाह जिन इंसानों को लोगों की हिदायत (मार्गदर्शन) के लिए चुनते हैं और अपनी तरफ से “वही” और इल्हाम (प्रेरणा) के ज़रिये से उनकी रहनुमाई करते हैं, उन्हें नबी कहा जाता है लेकिन हर नबी के लिए ज़रूरी नहीं है कि वह रसूल भी हो। रिसालत एक खास मंसब (पद) है जो नबियों में से कुछ ही को हासिल हुआ है। कुरआन इसके बारे में बयान करता है कि रसूल जब किसी कौम पर आता है तो वह उनके लिए खुदा की अदालत बन कर आता है और उनका फैसला कर के ही दुनिया से जाता है। कुरआन बताता है कि रसूलों की दावत में यह फ़ैसला इंज़ार, इंज़ार-ए-आम[2], इत्माम-ए-हुज्जत[3], हिजरत और बरआत[4] के मराहिल (चरणों) से गुज़र कर सामने आता है और इस तरह आता है कि आसमान की अदालत ज़मीन पर कायम होती है, रसूल का इनकार करने वालों को सज़ा मिलती है और रसूल के साथियों को कामयाबी हासिल होती है और इस तरह एक कयामत-ए-सुग़रा बरपा हो जाती है यानी कयामत में जो फ़ैसला होने वाला है उसकी एक छोटी शक्ल दुनिया में ही दिखा दी जाती है। इस दावत की जो तारीख (इतिहास) कुरआन में बयान हुई है उससे मालूम होता है कि इस मौके पर आमतौर पर दो ही सूरतें पेश आती हैं: एक यह कि पैगंबर के साथी भी कम होते हैं और उसके पास हिजरत (पलायन) करने के लिए भी कोई जगह नहीं होती। दूसरे यह कि रसूल अपने साथियों को लेकर निकलता है और उसके निकलने से पहले ही अल्लाह किसी सरज़मीं में उसके लिए आज़ादी और सियासी इख़्तियार (राजनैतिक अधिकार) के साथ रहने बसने का सामान कर देते हैं। इन दोनों ही सूरतों में रसूलों के बारे में ख़ुदा अपनी वह सुन्नत (स्थापित ईश्वरीय कानून) भी ज़रूर पूरी करता है जो कुरआन में इस तरह बयान हुई है:
وَلِكُلِّ أُمَّةٍ رَّسُولٌ فَإِذَا جَاءَ رَسُولُهُمْ قُضِيَ بَيْنَهُم بِالْقِسْطِ وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ [٤٧:١٠ ]
हर कौम के लिए एक रसूल है। फिर जब उनका रसूल आ जाता है तो उनके दरमियान इंसाफ के साथ फ़ैसला कर दिया जाता है और उनपर कोई ज़ुल्म नहीं किया जाता। (10:47)
पहली सूरत में रसूल के कौम को छोड़ देने के बाद यह फ़ैसला इस तरह पूरा होता है कि आसमान की फ़ौजें उतर आती हैं। गरजते तूफान और चक्रवात उठते हैं और बर्बाद कर देने वाले लश्कर कौम पर इस तरह हमलावर हो जाते हैं कि रसूल का इनकार करने वालों में से कोई भी ज़मीन पर बाक़ी नहीं रहता। कुरआन से मालूम होता है कि नूह (स.व) की कौम, लूत (स.व) की कौम, सालेह (स.व) की कौम, शुऐब (स.व) की कौम और इसी तरह की और दूसरी कौमों के साथ यही मामला हुआ। इस मामले से सिर्फ बनी इसराईल बचे रहे जो की असल में तौहीद (एकेश्वरवाद) को ही मानते रहे, यही वजह है कि ईसा (स.व) के उन्हें छोड़ जाने के बाद उन्हें हलाकत (पूर्ण विनाश) के बजाय हमेशा की मग़लूबियत (अधीनता) की सज़ा दी गयी।
दूसरी सूरत में सज़ा का यह फ़ैसला रसूल और उसके साथियों की तलवारों के ज़रिये से पूरा किया जाता है। इस सूरत में कौम को थोड़ी और मोहलत मिल जाती है। रसूल इस अरसे में हिजरत की जगह पर लोगों पर इत्माम-ए-हुज्जत भी करता है। अपने ऊपर ईमान लाने वालों की तरबियत और तज़कीर (शिक्षा और पवित्र करने) का काम भी करता है और अपने इंकार करने वालों से उन्हें अलग कर उन्हें सच की राह में लड़ने के लिए मुनज्ज़म (संगठित) भी करता है। इसके साथ ही हिजरत की जगह में रसूल अपना सियासी इख़्तियार भी इतना मज़बूत कर लेता है कि उसकी मदद से वह और उसके साथी सच और झूठ की जंग में फतह हासिल कर सकें।
मुहम्मद (स.व) के मामले में यही दूसरी सूरत पैदा हुई। इसलिए आपकी तरफ से इंज़ार, इंज़ार-ए-आम, इत्माम-ए-हुज्जत, हिजरत और बरआत और जिन की तरफ आप को भेजा गया उन लोगों के लिए जज़ा और सज़ा की यह सरगुज़श्त (गाथा) ही कुरआन का मौज़ू (विषय) है। इस की हर सूरा इसी पसमंजर (पृष्ठभूमि) में उतरी है और इसके सारे अबवाब (समूह) इसी लिहाज़ से जमा किए गए हैं।
इस तरतीब (व्यवस्था) में कुरआन को सात अबवाब की शक्ल में जमा कर दिया गया है और हर अबवाब में सूरतें आपस में जोड़े की शक्ल में रखी गयी हैं, यानी हर सूरा मज़मून के लिहाज़ से अपना जोड़ा रखती है। कुछ सूरतें जैसे कि सूरह फ़ातिहा जो कुरआन के दीबाचे (प्रस्तावना) की तरह है को छोड़ कर हर अबवाब में सूरतें जोड़े की शक्ल में रखी गयी है। कुछ सूरतें ऐसी भी है जो किसी अबवाब की तकमील करती है (पूरक हैं) या अबवाब के नतीजे (निष्कर्ष) के तौर पर आती हैं। कुरआन के बारे में यह हक़ीकत सूरह हिज्र में इस तरह बयान हुई है:
وَلَقَدْ آتَيْنَاكَ سَبْعًا مِّنَ الْمَثَانِي وَالْقُرْآنَ الْعَظِيمَ[٨٧:١٥]
“हमने, [ऐ पैगंबर], तुमको सात मसानी[5], यानी कुरआन ए अज़ीम अता कर दिया है।” (15:87)
कुरआन के इन सातों अबवाब में से हर बाब (अध्याय) एक या एक से ज़्यादा मक्की सूरत से शुरू होता है और एक या एक से ज़्यादा मदनी सूरतों पर खत्म हो जाता है। पहला बाब सूरह फ़ातिहा से शुरू होता और सूरह माइदह पर खत्म होता है। इसमें फ़ातिहा मक्की और बाकी चारों मदनी हैं।
दूसरा बाब अनआम और आराफ़ दो मक्की सूरतों से शुरू होता है और दो मदनी सूरतों, अनफ़ाल और तौबा पर खत्म होता है।
तीसरे बाब में यूनुस से मोमिनून तक पहली चौदह सूरतें मक्की हैं और आखिर में एक सूरह नूर है जो मदनी है।
चौथा बाब सूरह फुरकान से शुरू होता है, सूरह अहज़ाब पर खत्म होता है। इसमें पहली आठ सूरतें मक्की और आखिर में एक, यानी अहज़ाब मदनी हैं।
पांचवां बाब सूरह सबा से शुरू होता है, सूरह हुजुरात पर खत्म होता है। इसमें तेरह सूरतें मक्की और आखिर में तीन मदनी हैं।
छठा बाब सूरह क़ाफ़ से शुरू हो कर सूरह तहरीम पर खत्म होता है। इसमें सात मक्की और इसके बाद दस मदनी हैं।
सातवां बाब सूरह मुल्क से शुरू होकर सूरह नास पर खत्म होता है। इसमें आखिरी दो मदनी और बाकी सब मक्की हैं।
इनमें से हर बाब का एक मौज़ू है।
पहले बाब का मौज़ू यहूद और नसारा पर इत्माम-ए-हुज्जत, उनकी जगह एक नयी उम्मत का उठाया जाना (स्थापना करना), उस का तज़किया (आध्यात्मिक शुद्धि) और इनकार करने वालों से अलग करना, और उसके साथ ख़ुदा का आखिरी अहद (वादा) है।
दूसरे बाब में अरब के मुशरिकीन (बहुदेववादीयों) पर इत्माम-ए-हुज्जत, मुसलमानों के तज़किये और उनके इनकार करने वालों से अलगाव, और कयामत से पहले आखिरी बार दुनिया में अल्लाह की अदालत लगने और एक छोटी कयामत बरपा हो जाने का बयान है।
तीसरे, चौथे, पाँचवें और छठे बाब का मौज़ू एक ही है और वह इंज़ार और बशारत (चेतावनी और खुशखबरी) और तज़किया है।
सातवें और आखिरी बाब का मौज़ू क़ुरैश के सरदारों को कयामत के बारे में खबरदार करना, उन पर इत्माम-ए-हुज्जत, और उसके नतीजे में उन्हें अज़ाब (कड़ी सज़ा) की चेतावनी और मुहम्मद (स.व) के लिए अरब में उनके दीन के ग़लबे (प्रभुत्व) की खुशखबरी है। थोड़े लफ़्ज़ों में कहें तो यह इंज़ार और बशारत का बयान है।
इसमें से पहले बाब को अलग कर लीजिये तो कुरआन में इनकी तरतीब (क्रम) खात्मे से शुरुआत की तरफ है [सातवें से दूसरे बाब तक]। इसलिए सातवां बाब इंज़ार और बशारत ही पर पूरा हो जाता है। इसके बाद छठे, पांचवें, चौथे और तीसरे बाब में इंज़ार और बशारत के साथ मुसलमानों के तज़किये और इनकार करने वालों से अलग हो जाने का मौज़ू भी शामिल हो गया है। फिर दूसरा बाब इस सिलसिले का आखिरी बाब है जिसमें पैगंबर का इंज़ार अपनी चोटी (चरमबिंदु) को पहुंचता है। लिहाज़ा इत्माम-ए-हुज्जत, मुसलमानों का तज़किया और इनकार करने वालों से अलगाव के साथ उसमें आसमान की अदालत का वह फैसला भी सामने आ जाता है जिसे हम कयामत से पहले ख़ुदा की आखिरी अदालत लगना और एक छोटी कयामत बरपा हो जाना कहते हैं।
पहला बाब इस लिहाज़ से बिलकुल अलग है कि अरब के मुशरिकीन के बजाय वह यहूद और नसारा के लिए खास है, लेकिन कुरआन की शुरुआत से देखें तो यह भी इत्माम-ए-हुज्जत और तज़किया और इनकार करने वालों से अलगाव के बाद दूसरे बाब की सूरह तौबा में दुनिया में ख़ुदा के फैसले के मज़मून से बिलकुल उस तरह जुड़ता है जिस तरह बाकी के बाब अगर कुरआन के खात्मे से शुरआत की तरफ आयें तो सूरह तौबा तक जुड़ते चले जाते हैं। लिहाज़ा दूसरा बाब जैसे कि एक चोटी है जहाँ दोनों तरफ से इंज़ार का मौज़ू सिर्फ इस फ़र्क के साथ कि मुखातिबीन (वह लोग जिन पर हुज्जत पूरी की जा रही है) बदल गए हैं, अपने नुकता-ए-कमाल (शिखर) को पहुँचता और खत्म हो जाता है।
इस से साफ़ है कि दूसरे बाब से सातवें बाब तक कुरआन में खात्मे से शुरुआत की तरतीब को इसलिए इस्तेमाल किया गया है ताकी पहले बाब के साथ रब्त (समन्वय) कायम किया जा सके।
पहले बाब को इस तरतीब में यह जगह इसलिए दी गयी है कि कुरआन पाने वाले अब सबसे पहले इसी के मुखातिब हैं। इंज़ार, बशारत और इत्माम-ए-हुज्जत का मज़मून पहले बाब को छोड़कर आमतौर पर मक्कियात और तज़किया और इनकार करने वालों से अलगाव का मज़मून मद्नियात में बयान होता है, लेकिन यह दोनों भी हर बाब में इस तरह हमरंग और हमआहंग हैं जैसे जड़ से तना और तने से शाखें फूट रहीं हैं।
मुहम्मद (स.व) के आने के नतीजे में ख़ुदा की जो अदालत सरज़मीं अरब में कायम हुई उसका बयान इस खुबसूरत तरतीब के साथ इस किताब में हमेशा के लिए महफूज़ (सुरक्षित) कर दिया गया है। इस लिहाज़ से देखें तो कुरआन मज़हब का यह बुनियादी मुकदमा बिलकुल आख़िरी दर्जे में साबित कर देता है कि ख़ुदा की अदालत पूरे आलम के लिए भी एक दिन इसी तरह कायम हो कर रहेगी।
– जावेद अहमद ग़ामिदी
अनुवाद: मुहम्मद असजद
[1] इंज़ार यानी लोगों को क़यामत के बारे में खबरदार करना।
[2] खुलकर लोगों को क़यामत के बारे में खबरदार करना और अपनी दावत को आम करना।
[3] जब किसी कौम के ऊपर रसूल भेजा जाता है तो उनका रसूल उनके लिए सच को इस तरह पेश कर देता है कि ना मानने का कोई बहाना किसी के पास बाक़ी नहीं रहता।
[4] अपनी कौम को छोड़ कर चले जाना और उनसे अपने मामले अलग कर लेना।
[5] जो जोड़ो की शक्ल में हो।