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अंगों का प्रत्यारोपण
पिछली दो सदियों में साइंस ने जो करिशमे दिखाए हैं और इंसानियत के लिए जो सुविधाएं विक्सित की हैं उनमें से एक असाधारण चीज़ यह है कि सर्जरी के माध्यम से इंसान के ख़राब अंगों को किसी दूसरे व्यक्ति के स्वस्थ अंगों से बदला जा सकता है। यह मामला जीवन में भी हो सकता है और जीवन के बाद भी। इस पर यह सवाल पैदा हुआ कि दीन व शरीअत के लिहाज़ से क्या यह जायज़ है कि कोई व्यक्ति जीवन में अपना कोई अंग किसी को गिफ़्ट करे या वसीयत करे कि मरने के बाद यह अंग दूसरे व्यक्ति को दिया जा सकता है।
मेरे विचार से तो क़ुरआन व हदीस में ऐसी कोई चीज़ ज़ाहिर रुप से नहीं है जो इसमें रुकावट हो, लेकिन दीन का गहरा इल्म रखने वाले आलिम व फ़क़ीह आम तौर से इसे ना जायज़ क़रार देते हैं। उनका कहना यह है किः
एक, इंसान अपने शरीर का मालिक नहीं है लिहाज़ा उसको यह हक़ नहीं पहुंचता कि मरने से पहले अपने अंग किसी को देने की वसीयत करे। आदमी का शरीर उसी समय तक उसके नियंत्रण में है जब तक वह ख़ुद इस शरीर में रहता है। शरीर से इंसान (की रूह) के निकल जाने के बाद उसका इस शरीर पर कोई अधिकार बाक़ी नहीं रहता कि वह उसके बारे में वसीयत करे और उसकी यह वसीयत पूरी की जाए।
दूसरी यह कि इंसान की लाश का सम्मान बना रहना चाहिए। जीवित इंसान किसी मृत इंसान के शरीर को कोई नुक़सान पहुंचाने का अधिकार नहीं रखते। जीवित इंसानों का फ़र्ज़ है कि मृतक के शरीर को पूरे सम्मान के साथ दफ़न कर दें। लाश को चीरना फाड़ना या उसका कोई अंग काट लेना लाश का अपमान है यह बिल्कुल अनैतिक बात है और नैतिकता में विश्वास रखने वाला कोई समाज या व्यवस्था इसकी इजाज़त नहीं दे सकती।
लेकिन, मेरा कहना यह है कि बेशक हर चीज़ का वास्तविक मालिक अल्लाह है, मगर इसके साथ यह भी सच्चाई है कि अल्लाह ने जो चीज़ें इंसान को दी हैं अल्लाह की तय की हुई हदों के अन्दर वह उनमें हर तरह से काम में लाने का हक़ रखता है। इंसान अपनी इज़्ज़त, अपने और बाल बच्चों को बचाने के लिए और अपने दीन व ईमान के लिए या अपनी चीज़ों को बचाने के लिए अपनी जान को दांव पर लगा सकता है। इन चीज़ों के लिए वह अपन आप को यह जानते हुए जंग में झोंक देता है कि मारा जाऊंगा या अपना कोई अंग खो दुंगा। मेरे नज़दीक यह क़ुरआन के मुताबिक़ नफ़्स व माल का जिहाद और अल्लाह की राह मे इन्फ़ाक़ (ख़र्च करना) है। क़ुआन ने अपने मानने वालों को जगह जगह माल व जान से जिहाद करने की प्रेरणा दी है और इन उद्देश्यों के लिए अपनी जान व माल को खपाने के लिए उभारा है। मेरा मानना यह है कि इस तरह क़ुरआन अपने जिस्म पर इस तरह से तसर्रुफ़ (काम में लाने) को स्वीकार करता है।
इंसान को वसीयत का हक़ भी इसी हक़ से जुड़ा हुआ है। इसलिए जिस तरह हम यह हक़ रखते हैं कि मरने के बाद अपने माल (तिहाई भाग) में से अपन माल के बारे में वसीयत करें उसी तरह यह हक़ भी रखते हैं कि अपने शरीर को कहां कैसे दफ़न किया जाए इसके बारे में वसीयत करें। मेरी समझ से अपना कोई अंग किसी व्यक्ति को देने की वसीयत भी इसी तरह की बात है। पहली सब चीज़ें अगर जायज़ हैं और आदमी के अपने शरीरे से निकल जाने के बावजूद हो सकती हैं तो अंगों के बारे में वसीयत को नायाज़ कैसे माना जाए।
लाश के अपमान की बात को भी इसी तरह देखना चाहिए। इसका सम्बंध नियत और मक़सद से है। किसी व्यक्ति के अंग को नुक़सान पहुंचाना जुर्म है। क़ुरआन में इसके लिए क़िसास और दियत के अहकाम दिए गए हैं, लेकिन मरीज़ की इजाज़त से एक डाक्टर उसका हाथ या पांव काट देता है तो कोई व्यक्ति उसे अपराधी नहीं कह सकता। फिर मृतक की लाश पर घोड़े दौड़ाने या उसकी चीर फाड़ करने और जांच के लिए उसका पोस्ट मार्टम करने में फ़र्क़ क्यों न किया जाए। आदमी अपना माल किसी ज़रूरत मंद को देने की वसीयत करता है तो यह एक नेकी का काम है, इसी तरह मेरे नज़दीक कोई अपना अंग किसी ज़रूरतमंद को देने की वसीयत करे तो उसे भी नेकी ही मानना चाहिए। इसकी वसीयत को पूरा करना मेरे नज़दीक लाश की बेहुर्मती नहीं है।
2010