हमारे कानूनविदों (फुक्हा) का मानना है कि स्वधर्म त्याग यानी इर्तेदाद की सज़ा मौत है। हम इस राय को ठीक नहीं मानते। इसका विश्लेषण करते हुए ग़ामिदी साहब लिखते हैं[1]:
स्वधर्म त्याग की यह सज़ा एक हदीस को समझने में गलती से पैदा हुई है। यह हदीस ‘अब्दुल्लाह इब्न अब्बास (रज़ि.) ने रवायत की है और इस तरह है:
रसूलअल्लाह (स.व) ने फरमाया: “जो व्यक्ति अपना धर्म बदले उसे कत्ल कर दो।”[2]
हमारे कानूनविद मानते हैं कि यह आदेश रसूलअल्लाह (स.व) से लेकर अब कयामत तक हर दौर के उन सभी मुसलमानों पर लागू होगा जो अपना धर्म छोड़ेंगे। उनके विचार से, यह हदीस सज़ा-ए-मौत का हुक्म है उन सब मुसलमानों के लिए जो अपनी इच्छा से इस्लाम को छोड़ देंगे। इस मामले में सिर्फ एक बात पर कानूनविद में मतभेद है कि इस्लाम छोड़ने वाले (मुर्तद) को पश्चाताप (तौबा) के लिए समय देना चाहिए या नहीं, अगर हाँ, तो कितना समय देना चाहिए। हनफी कानूनविद हालांकि इस मामले में औरतों को सज़ा से बरी रखते हैं। उनके अलावा बाकी कानूनविदों में इस बात पर आम सहमती है कि औरत हो या मर्द, हर इस्लाम छोड़ने वाले को मौत की सज़ा दी जाएगी।
फुक्हा की यह राय सही नहीं है, यहाँ पूरे मामले को समझने ज़रूरत है। इस हदीस में जो आदेश दिया गया है वह एक ख़ास मौके (विशिष्ट परिस्थिति) के लिए था उसे आम हालात में सब मुसलमानों पर लागू नहीं किया जा सकता। यह आदेश सिर्फ उन लोगों तक सीमित है जिनके ऊपर खुद अल्लाह का रसूल नियुक्त किया गया था और जिनको अल्लाह के रसूल (स.व) ने खुद आकर ईमान की दावत दी। कुरआन ने इन लोगों के लिए मुशरिकीन और उम्मियीन शब्दों का प्रयोग किया है।
इस राय का विस्तार (खुलासा):
हम सब जानते हैं कि इस दुनिया में ज़िन्दगी हमें इसलिए नहीं दी गयी कि यह हमारा अधिकार (हक़) है बल्कि यह हमारे लिए एक परीक्षा, एक इम्तिहान का सफर है। जब इस परीक्षा का समय अल्लाह के हिसाब से समाप्त हो जाता है तब मौत आकर ज़िन्दगी का सफर भी खत्म कर देती है। आम मामलों में अल्लाह अपने हिसाब से इस परीक्षा का समय तय करते हैं लेकिन जब किसी कौम या समुदाय पर अल्लाह अपना रसूल भेजता है तो वह रसूल सच को उन लोगों के सामने आख़िरी दर्जे (अंतिम रूप) में रख देता है, यहाँ तक कि उनके पास ना मानने का कोई बहाना बाकी नहीं रह जाता, इसको इत्माम-ए-हुज्जत (الحجة إتمام)[3] कहा जाता है, और इसके बाद भी अगर वह अपनी ज़िद, घमंड और दुश्मनी में मानने से इनकार कर देते हैं तो दुनिया में ही उनका फ़ैसला कर दिया जाता है। इसको इस तरह समझा जा सकता है कि जज़ा और सज़ा का जो फैसला अल्लाह कयामत में करने वाले हैं उसी का एक छोटा नमूना किसी कौम पर रसूल भेज कर इसी दुनिया में पेश कर दिया जाता है ताकी लोग इससे हिदायत हासिल करें। अल्लाह ने उन्हें ज़िंदगी की नेमत दी थी ताकि उनको आज़माए और क्योंकि इत्माम-ए-हुज्जत के बाद यह आज़माइश पूरी हो गयी तो अल्लाह का आम कानून इस मामले में यह है कि ऐसे लोगों को और ज़्यादा मोहलत नहीं दी जाती और उनके लिए मौत की सज़ा तय हो जाती है। यह सज़ा रसूल का इनकार कर देने वाली कौम पर दो में से एक तरह से आती है और यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि उन्हें किस तरह सज़ा दी जाएगी। एक मामला तो यह होता है कि इत्माम-ए-हुज्जत के बाद रसूल और उसके साथियों को राजनीतिक प्रभुत्व (सियासी इक्तिदार) हासिल नहीं होता, ऐसे में रसूल अपने साथियों के साथ अपनी कौम के इलाके से पलायन (हिजरत) कर जाता है। इस के बाद उस कौम को अल्लाह की तरफ़ से उग्र तूफान, चक्रवात और अन्य आपदाओं के रूप में सज़ा दी जाती है जो उन्हें पूरी तरह नेस्तनाबूद कर देती है। कुरआन इसका उल्लेख करता है कि किस तरह आद और समूद के समुदाय, नूह (स.व) और लूत (स.व) के लोग और इनके अलावा कई और कौम इस भयानक अंजाम को पहुंची है। दूसरे मामले यह होता है कि रसूल और उसके साथियों को इत्माम-ए-हुज्जत के बाद वहां राजनीतिक प्रभुत्व हासिल हो जाता है जहाँ वह पलायन करके पहुंचते है। इस स्थिति में रसूल और उसके साथियों के हाथों से रसूल का इनकार करने वाली कौम को सज़ा दी जाती है, यहाँ तक कि अगर वह ईमान नहीं लाते तो उन्हें मौत की सज़ा दी जाती है। यही स्थिति मुहम्मद (स.व) के समय में पैदा हुई थी। इसी कारण अल्लाह ने उन्हें इस घोषणा का आदेश दिया कि उम्मियीन में से जो लोग हज अल-अकबर के दिन तक (9 हि.) तक ईमान नहीं लाये उन्हें उस दिन अराफात के मैदान में घोषणा करके मोहलत की अंतिम अवधि दी जाएगी। इस घोषणा अनुसार, मोहलत की यह अंतिम अवधि मुहर्रम माह के अंतिम दिन समाप्त हो जाएगी, इस दौरान या तो उन्हें ईमान कबूल कर लेना है या फिर उन्हें मौत की सज़ा दी जाएगी। कुरआन में आया है:
فَإِذَا انسَلَخَ الْأَشْهُرُ الْحُرُمُ فَاقْتُلُوا الْمُشْرِكِينَ حَيْثُ وَجَدتُّمُوهُمْ وَخُذُوهُمْ وَاحْصُرُوهُمْ وَاقْعُدُوا لَهُمْ كُلَّ مَرْصَدٍ فَإِن تَابُوا وَأَقَامُوا الصَّلَاةَ وَآتَوُا الزَّكَاةَ فَخَلُّوا سَبِيلَهُمْإِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
[٥:٩]
[बड़े हज के दिन] इस [एलान] के बाद जब हुरमत के महीने गुज़र जाएं तो इन मुशरिकों (बहुदेववादियो) को जहाँ पाओ कत्ल करो, और [इस मकसद के लिए] इनको पकड़ो और इनको घेरो और इनकी घात में बैठो। फिर अगर यह तौबा (प्रायश्चित्त) कर लें और नमाज़ स्थापित करें और ज़कात दें तो इनकी राह छोड़ दो। बेशक अल्लाह माफ़ करने वाला, दया करने वाला है। (9:5)
एक हदीस में इस कानून की व्याख्या इस प्रकार हुई है:
अब्दुल्लाह इब्न उमर रसूलअल्लाह (स.व) के हवाले से रवायत करते हैं: “मुझे इन लोगों के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के लिए कहा गया है जब तक वह सिर्फ एक खुदा में विश्वास होने की गवाही नहीं देते और मुहम्मद को उसका रसूल नहीं मानते, नमाज़ स्थापित नहीं करते और ज़कात नहीं देते। अगर वह यह शर्तें मान लेते हैं तो उन्हें जीवनदान दिया जायेगा, सिवाय इसके कि वह कोई और ऐसा काम कर दें जिसकी सज़ा इस्लामी कानून में मौत हो और [आख़िरत में] इनके कर्मों का हिसाब अल्लाह करने वाला है।” [4]
जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, यह कानून खास तौर पर उम्मियीन के लिए था या उन लोगों के लिए जिन पर मुहम्मद (स.व) प्रत्यक्ष रूप में रसूल नियुक्त हुए थे, यानी जो लोग सीधे रसूलअल्लाह (स.व) के मुखातिबीन थे। इसके अलावा यह किसी और इंसान या समुदाय पर लागू नहीं होता। यहाँ तक कि अहले किताब[5] जो उस समय मौजूद थे उनको भी कुरआन ने इस कानून से बरी रखा है। जहाँ भी कुरआन में उम्मियीन के लिए मौत की सज़ा का आदेश आया है उसके साथ ही साफ शब्दों में यह भी बताया गया है कि अहले किताब अगर जिज़्या देते हैं तो उन्हें छोड़ दिया जायेगा और नागरिकता दी जायेगी। कुरआन में आया है:
قَاتِلُوا الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْآخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ حَتَّىٰ يُعْطُوا الْجِزْيَةَ عَن يَدٍ وَهُمْ صَاغِرُونَ
[٢٩:٩]
उन किताबवालो से भी युद्ध करो जो ना अल्लाह पर विश्वास रखते हैं और ना आख़िरत के दिन पर और ना अल्लाह और उसके रसूल के हराम ठहराये हुए को हराम ठहराते हैं और ना दीन ए हक़ (सत्यधर्म) को अपना धर्म बनाते हैं। [उनसे लड़ो] यहाँ तक कि अपने हाथों से वह जिज़्या दें और आधीन हो कर रहें। (9:29)
अभी तक हम अल्लाह के एक विशेष कानून पर बात कर चुके हैं इसी कानून का एक स्वाभाविक परिणाम निकालता है, जो कि खुद कानून जितना ही साफ़ है। जैसा कि पहले बात हो चुकी है, यह एलान कर दिया गया था कि अगर उम्मियीन एक तय समय तक ईमान की गवाही नहीं देते तो उनको मौत की सज़ा दी जाएगी। अब अगर उम्मियीन में से कोई ईमान की गवाही देने के बाद के बाद ईमान छोड़कर वापिस अपनी कुफ्र (अविश्वास) की स्थिति पर लौट जाता है तो फिर यह बात भी साफ है कि उसे इसी विशेष कानून के तहत सज़ा दी जाएगी। यह ही वह मामला है जिस पर हदीस अनुसार रसूलअल्लाह (स.व) ने कहा: “जो व्यक्ति अपना धर्म बदले उसे कत्ल कर दो।”
हदीस में आये संबंधवाचक सर्वनाम (relative pronoun) “जो” से मतलब यहाँ उम्मियीन हैं, जैसे कि इससे पहले दी गयी हदीस के शब्द “इन लोगों” (अल्-नास) से मतलब खास तौर पर उम्मियीन हैं। हदीस में बयान हुए कानून का आधार और उसका ब्यौरा कुरआन में आ गया है तो यह भी स्वाभाविक है कि आगे के नतीजे भी इसी आधार को ध्यान में रखते हुए निकाले जाने चाहिए। हमारे फुक्हा ने इस हदीस – “जो व्यक्ति अपना धर्म बदले उसे कत्ल कर दो” में आये संबंधवाचक सर्वनाम “जो” का संबंध कुरआन में दिए गए आधार से नहीं जोड़ने की बुनियादी भूल की है, जिस तरह उन्होंने ऊपर दी गयी हदीस में “इन लोगों” (अल्-नास) के मामले में किया। कुरआन और हदीस के आपसी संबंध की रौशनी में हदीस को समझने के बजाय उसकी बिलकुल स्वतंत्र व्याख्या (independent interpretation) कर दी जो की पूरी तरह कुरआन के पसमंज़र (संदर्भ) के खिलाफ़ (विरुद्ध) है। नतीजतन उनकी राय में हदीस में सुनाया गया फैसला आम हालात में भी बिना शर्त सब पर लागू होगा। उन्होंने इस तरह इस्लामी दंड संहिता में एक ऐसी सज़ा शामिल कर ली है जिसका कोई आधार शरीअत में नहीं है।
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद
[1]. ग़ामिदी, बुरहान, 139-143।
[2]. सही बुख़ारी, भाग.3, 1098, (न. 2854)।
[3]. सच को इस तरह पेश कर देना की ना मानने का कोई बहाना बाकी ना रहे, सिवाय इसके की लोग अपनी ज़िद, घमंड और दुश्मनी की वजह से सच को मानने से इनकार कर दें।
[4]. सही मुसलिम, भाग.1, 53, (न. 22)।
[5]. जिन्हें पहले आसमानी किताब दी गयी थीं (यहूदी और नसरानी)।