कुछ लोगों का मानना है कि ईद पर किसी भेड़-बकरी की बलि (क़ुरबानी) करने के बजाय उसके बराबर पैसा दान में दिया जा सकता है।
यह धारणा (तसव्वुर) सही नहीं है, इसको ज़रा विस्तार में समझते हैं:
हर इंसान जो अल्लाह पर यकीन रखता है, उसके लिए दो दायरों में रिश्ते वजूद में आते हैं। पहला दायरा है इंसान और उसका अपने रब से रिश्ता और दूसरा दायरा है इंसान का अपने साथी इंसानों से रिश्ता। अल्लाह की तरफ से उतरा दीन और कुछ नहीं है बल्कि इन्हीं दोनों दायरों में इंसानी अक्ल के लिए मार्गदर्शन (हिदायत) है। एक इंसान अपने और अपने रब के रिश्ते को इबादत के ज़रिये से अभिव्यक्त (ज़ाहिर) करता है, जिसके इस्लाम में कुछ ख़ास रूप हैं। इसी तरह से अपने साथी इंसानों से उसका रिश्ता सामाजिक मेल-जोल का रूप लेता है और उसके भी अलग-अलग दायरे हैं। इन दायरों का पूरा या कुछ इनकार करने का नतीजा एक असंतुलित जीवन होता है। पहले दायरे में अतिवाद (इंतिहा-पसंदी) संन्यास और वैराग्य को जन्म देता है और दूसरे दायरे में अतिवाद भौतिकवाद (दुनिया-परस्ती) को जन्म देता है। इस्लाम चाहता है कि हर इंसान इन दोनों दायरों की अहमियत समझते हुए एक संतुलित जीवन बिताये। इसी तरह इस्लाम चाहता है कि एक इंसान दोनों दायरों में रिश्तों की अभिव्यक्ति (इज़हार) के लिए तय किया गया रूप अपनाये क्योंकि हर एक का अपना खास मकसद है।
पहले दायरे में इस्लाम ने इबादत के कुछ खास रूप निर्धारित (तय) किए हैं जो एक दूसरे की जगह नहीं ले सकते क्योंकि हर एक का अपना अलग मकसद है। क़ुरबानी भी इबादत का एक ऐसा ही रूप है। इसके फ़लसफ़े को अच्छी तरह समझ लेने के बाद ही इसको सही तरीके और जज़्बे के साथ अदा किया जा सकता है। जिस तरह ज़कात और नमाज़ एक दूसरे की जगह नहीं ले सकते उसी तरह क़ुरबानी और ज़कात या दान एक दूसरे की जगह नहीं ले सकते। क़ुरबानी के पीछे जो वजह है और जो जज़्बा क़ुरबानी इंसान में पैदा करती है वह नमाज़, ज़कात या हज नहीं करते।
ईद पर क़ुरबानी असल में उस महान घटना की यादगार के तौर पर की जाती है जिसमें अल्लाह के पैगंबर इब्राहीम (स.व) ने अल्लाह के हुक्म के सामने खुद को असाधारण रूप से पेश कर दिया। अल्लाह की इच्छा के आगे समर्पण ही इस्लाम का सार है और इब्रहिम (स.व) ने इसकी एक ज़बरदस्त मिसाल कायम कर दी। जब हम क़ुरबानी करते हैं तो उस वक़्त प्रतीकात्मक रूप में (अलामत के तौर पर) हम अपना यह इरादा ज़ाहिर करते हैं कि इब्राहीम (स.व) ने जिस त्याग और समर्पण की भावना और जिस शानदार तरीके से खुद को अल्लाह के हुक्म के आगे समर्पित कर दिया था हम भी उसी तरह अल्लाह के लिए अपनी जान भी कुरबान करने के लिए तैयार हैं।
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद