कुछ लोग सोचते हैं कि व्यापारिक उपक्रमों (commercial enterprises) से लिया जाने वाला सूद निषिद्ध (हराम) नहीं है।
इस ग़लतफहमी को दूर करते हुए ग़ामिदी साहब लिखते हैं[1]:
यह साफ रहना चाहिए कि रिबा का मतलब इससे तय नहीं होता कि क़र्ज़ निजी ज़रूरत, व्यापार या फिर कल्याण परियोजना (welfare scheme) के लिए लिया गया है। तथ्य यह है कि अरबी भाषा में रिबा शब्द का मतलब है दिए गए क़र्ज़ में पूर्व निर्धारित वृद्धि (तयशुदा इज़ाफा) हासिल करना। क़र्ज़ देने वाले के मकसद और लेने वाले के हालात से इसके अर्थ पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कुरआन ने खुद यह बात साफ़ की है। कुरआन जिस समय उतर रहा था उस समय व्यापार के लिए ब्याज़ पर कर्ज़ा लेना एक आम चलन था और यह कर्ज़ा दूसरों के माल पर अपनी धन-संपत्ति बनाने के इरादे से दिया जाता था। कुरआन में आता है:
وَمَا آتَيْتُم مِّن رِّبًا لِّيَرْبُوَ فِي أَمْوَالِ النَّاسِ فَلَا يَرْبُو عِندَ اللَّهِ ۖ وَمَا آتَيْتُم مِّن زَكَاةٍ تُرِيدُونَ وَجْهَ اللَّهِ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الْمُضْعِفُونَ
[٣٠: ٣٩]
यह सूदी क़र्ज़ जो तुम इसलिए देते हो कि दूसरों के माल में शामिल होकर बढ़े तो वह अल्लाह के यहाँ नहीं बढ़ता। और जो सदका तुम देते हो कि उससे अल्लाह की रज़ा चाहते हो तो उसी के देने वाले हैं जो [अल्लाह के यहाँ] अपना माल बढ़ा रहे हैं। (30:39)
आयत में आए यह शब्द: “दूसरों के माल में शामिल होकर बढ़े”, गरीबों को निजी ज़रूरत के लिए दिए गए सूदी क़र्ज़ के लिए अनुपयुक्त (नामुनासिब) हैं और इसके अलावा यह भी सुझाते हैं कि ब्याज़ आधारित क़र्ज़ आम-तौर पर लोगों को व्यापार के मकसद से दिए जाते थे और इस तरह कुरआन के मुताबिक वह लोगों के माल में मिलकर बढ़ते थे ।
निम्नलिखित आयत भी इसी तरफ इशारा करती है:
وَإِن كَانَ ذُو عُسْرَةٍ فَنَظِرَةٌ إِلَىٰ مَيْسَرَةٍ ۚ وَأَن تَصَدَّقُوا خَيْرٌ لَّكُمْ ۖ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ
[٢: ٢٨٠]
तुम्हारा कर्ज़दार तंगी में हो तो हाथ खुलने तक उसे मुहलत दो, और अगर तुम [क़र्ज़] माफ कर दो, तो यह तुम्हारे लिए और अच्छा है अगर तुम समझो। (2:280)
अमीन अहसन इस्लाही इस आयत पर टिप्पणी करते हैं:
आज कुछ लोग दावा करते हैं कि अरब में इस्लाम पूर्व जिस तरह से ब्याज़ लिया जाता था वह असल सूदखोरी थी। ग़रीब और बेसहारा लोगों के पास अपनी निजी ज़रूरतों के लिए कुछ अमीर साहूकारों से क़र्ज़ लेने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। यह साहूकार गरीबों का शोषण किया करते थे और उन्हें ऊँचे ब्याज दरों पर पैसे उधार दिया करते थे। केवल यह ब्याज़ है जिसको कुरआन ने रिबा कहा है और हराम किया है। जहाँ तक व्यावसायिक ब्याज़ की बात है तो यह ना उस समय हुआ करता था और ना कुरआन ने इससे रोका है।
आयत इस बात का साफ़ तौर पर खंडन करती है। जब कुरआन यह बात कहता है कि अगर कर्ज़दार तंगी या परेशानी में हो तो उसे राहत हो जाने तक मोहलत दो तो इससे यह बात भी सामने आती है कि उस समय में संपन्न और पैसे वाले लोग भी क़र्ज़ लिया करते थे। अगर आयत की शैली और उसकी ज़ोर दी गयी बात को ठीक से समझा जाए, तो यह साफ हो जाता है कि ज़्यादातर अमीर लोग ही क़र्ज़ लिया करते थे। बेशक, यह बहुत हद तक संभव था कि कर्ज़दार को मूल रकम वापस करने में भी परेशानी आ जाए, इसलिए क़र्ज़ देने वाले को और मोहलत देने के लिए कहा गया है और यह भी बताया गया है कि अगर वह क़र्ज़ माफ कर दे तो यह उसके लिए बेहतर है। जो असल शब्द आयत में आये हैं वह हैं : وَإِن كَانَ ذُو عُسْرَةٍ فَنَظِرَةٌ إِلَىٰ مَيْسَرَةٍ
إن (अगर) आम हालात के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता, बल्कि यह कभी-कभी आने वाली और असामान्य स्थितियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आम हालात के लिए إذا (अगर) इस्तेमाल होता है। इस रौशनी में यह साफ़ हो जाता है कि उस वक़्त के कर्ज़दार ज़्यादातर संपन्न लोग थे, लेकिन कुछ मामलों में ग़रीब या कर्ज़ा लेने के बाद ग़रीब हो जाने वाले भी थे और ऐसे मामलों के लिए कुरआन ने क़र्ज़ देने वाले को कुछ मोहलत देने का निर्देश दिया है। [2]
अंत में नतीजे के तौर पर लिखते हैं:
ज़ाहिर है, संपन्न लोग निजी ज़रूरतों के लिए क़र्ज़ नहीं लेते होंगे बल्कि व्यापार के लिए साहूकारों का रुख करते होंगे। तो इस क़र्ज़ और आज के व्यावसायिक क़र्ज़ में क्या फर्क है। [3]
–शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद
[1]. ग़ामिदी, मीज़ान, 511-512।
[2]. अमीन अहसन इस्लाही, तदब्बुर-ए-कुरआन, भाग. 1, 638-639।
[3]. पूर्वोक्त, 639।