लेखक: जावेद अहमद गामिदी
अनुवादक : मुश्फ़िक़ सुल्तान
हमारे यहाँ लोग अक्सर कहते हैं कि दीन का अक़ल से क्या संबन्ध? यह तो बस मान लेने की चीज़ है। इस के लिए अली रज़ी अल्लाहो अनहु का यह कथन दलील के तौर पर पेश किया जाता है कि दीन के अहकाम (आदेश) अगर अक़ल पर टिके होते तो नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम पैरों के ऊपर मसह करने का हुक्म न देते1। अक़ल का तक़ाज़ा यही था कि पैर क्योंकि अधिकतर नीचे से मैले होते हैं, इस लिए मसह भी वहीं किया जाता। हमारे निकट यह दृष्टिकोण किसी तरह सही नहीं है। कुरआन मजीद स्पष्ट रूप से कहता है कि सारा दीन अक़ल पर आधारित है। वह अपने सारे आदेश और अकीदे इसी आधार पर इन्सानों के सामने पेश करता है। उस ने जो बात भी कही है, उस के लिए हर जगह अक्ली प्रमाण पेश किए हैं। वह इन प्रमाणों से मूंह मोड़ने वालों को खबरदार करता है कि वे अपनी अक़ल से क्यों काम नहीं लेते। कुरआन का अध्ययन अगर ध्यान से किया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इंसान दीन को मानने और उस पर अमल करने का बाध्य ही इस लिए ठहराया गया है कि उस के परवरदिगार ने उसे अक़ल की नेमत (वरदान) दी है। इस लिए एक भला चंगा आदमी जिसके शरीर के किसी हिस्से में कोई खराबी नहीं होती, केवल अक़ल से वंचित हो जाने के कारण दीन की सारी जिम्मेदारियों से बरी करार दिया जाता है। वह बाक़ी हर लिहाज़ से सही और स्वस्त होने के बावजूद कुरआन और हदीस की दृष्टि से न नमाज़ रोज़े का बाध्य होता है और न उसे किसी अपराध के करने पर सज़ा दी जा सकती है।
इस में संदेह नहीं कि हमारी अक़ल दीन के कई हकाइक (तथ्य) खुद मालूम नहीं कर सकती। लेकिन अल्लाह के नबियों की तरफ से उन की वज़ाहत (व्याख्या) के बाद उन्हें समझने की सलाहियत (क्षमता) बेशक रखती है। यही कारण है कि उन्हें मानने का तक़ाज़ा भी अल्लाह ने उसी से किया है।
आइन्स्टाइन (Einstein) का आपेक्षिकता सिद्धांत (Theory of Relativity) हमारे विद्यालयों में साइंस के छात्रों ने नहीं खोजा। वे तो शायद उसे खोज भी नहीं सकते, लेकिन अब वे हर रोज़ उसे समझते और जिस हद तक अपनी अक़ल के मुताबिक पाते हैं, बिना किसी संकोच के उसे मान लेते हैं। साइंस का उस्ताद (शिक्षक) जब यह सिद्धान्त उन्हें समझाता है तो उन की अक़ल ही को संबोधित करता है और उसी से तक़ाज़ा करता है कि वह उसे माने।
दीन भी इंसान की अक़ल ही को संबोधित करता है। इस लिए वह कोई शिक्षा अक़ल के विरुद्ध नहीं देता। उसकी सारी शिक्षाएँ अक़ल के मुताबिक हैं।
हम नहीं समझते कि हज़रत अली जैसे बुद्धिमान इंसान ने मसह के बारे में वह बात कही होगी जो ऊपर बयान हुई है। हम में से हर व्यक्ति समझ सकता है कि जुराबों पर मसह उन की गंदगी दूर करने के लिए नहीं किया जाता। उस की हैसियत 'तयम्मुम' की तरह केवल एक अलामत (प्रतीक) की है जिस से हम एक तरह की ज़ेहनी पाकीज़गी हासिल करते हैं। हम पूरे संतोष के साथ कह सकते हैं कि यह चीज़ अल्लाह के हुक्म के पालन में सिर्फ पैरों के ऊपर हाथ फेर लेने से हासिल हो जाती है। इसे किसी तरह अक़ल के विरुद्ध नहीं करार दिया जा सकता।2
1988
टीका
1. सुनन अबू दावूद, किताब अल्ताहारत, बाब 63 | سنن أبي داود » كِتَاب الطَّهَارَةِ » بَاب كَيْفَ الْمَسْحُ
2. अक़ल का तक़ाज़ा भी यही लगता है कि जुराबों के ऊपर मसह करना ही सही है। यदि गीले हाथों से नीचे मसह किया जाए तो जुराबे नीचे ]से गीले होंगे और जो कुछ धूल वहाँ होगी वो अब नमी के कारण जुराबों की ओर आकर्षित होगी और फर्श भी चलने से मैला होगा। हाथ पर भी धूल चिपके गी। इसी लिए पैर के ऊपर ही मसह करना अक़ल के अनुसार उचित है। हज़रत अली जैसे बुद्धिमान व्यक्ति की तरफ यह बात मनसूब करना अनुचित है। (अनुवादक)
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