(Read the original article in Urdu:
http://www.javedahmadghamidi.com/books/view/ghazwa-e-hind-ki-kamzor-aur-ghalat-riwayaat-ka-jaiza)
लेखक: मुहम्मद फारूक खां
अनुवाद: मुहम्मद असजद
हमारे दीन की तालीमात (शिक्षाएँ) बिलकुल साफ़ और वाज़ेह हैं, क्योंकि उन की बुनियाद कुरआन मजीद और सहीह हदीसों[1] पर है। कुरआन मजीद के मामले में तो किसी शक (संदेह) की गुंजाइश नहीं है, लेकिन क्योंकि हदीसें एक इंसान से दूसरे इंसान को पहुँचते हुए आगे मुन्ताकिल (संचारित) हुई (पहुंची) और इस में यह खतरा मौजूद था कि कहीं कोई ग़लत बात रसूलअल्लाह (स.व) का हवाला लेकर दर्ज न हो जाए, इस लिए मुस्लिम इतिहास में सैकड़ों मुहद्दिसीन (हदीस विशेषज्ञ) और उलमा ने अपनी पूरी उम्र ही इस मकसद के लिए लगा दी कि हदीसों को रिवायत (संचारित) करने वालों की छानबीन की जाये कि क्या वह काबिल-ए-एतमाद (विश्वसनीय) थे, क्या उनके हाफज़ा (यादाश्त) सही था, क्या वह मारुफ़ और जाने-पहचाने लोग थे? क्या ऐसा तो नहीं कि एक आदमी जिस व्यक्ति से रिवायत बयान कर रहा है वह उस से मिला ही ना हो, या और इसी तरह के अनगिनत पहलुओं पर हमारे उलमा (विद्वानों) ने काम किया और उसके नतीजे में “इल्म-ए-अस्मा अल्-रिजाल” के नाम से एक ऐसी विद्या पैदा हुई जिस पर मुसलमान गर्व कर सकते है। इस इल्म के तहत रसूलअल्लाह (स.व) से रिवायत करने वाले हर व्यक्ति की ज़िन्दगी के हालात पता किए गए और यह मालूम किया गया कि क्या इस व्यक्ति की रिवायत कबूल करने लायक है या नहीं।
इस इल्म की बुनियाद पर मुहद्दिसीन ने हदीसों को जांचा और बताया कि कौन सी हदीस उन के अनुसार ठीक है और कौन सी ठीक नहीं है। यही वजह है की सारी उम्मत इस बात को जानती है कि दीन के मामले में दलील कुरआन या विश्वसनीय हदीस से पेश की जाती है। हम इस बात से अल्लाह की पनाह मांगते हैं कि कोई ग़लत बात रसूलअल्लाह (स.व) के हवाले से पेश करें। हमारे दीन की बुनियाद किसी कमज़ोर और ज़ईफ़ रिवायत पर हो ही नहीं सकती।
इस उम्मत की तारीख में बेशुमार फितना फैलाने वालों और नबूवत के दावेदारों ने अपने दावों की बुनियाद ऐसी ही कमज़ोर और ग़लत रिवायात पर रखी है। खवारिज से लेकर हसन बिन सबाह और मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी से लेकर युसूफ कज़ाब तक सब ने यह काम किया है। यह कमज़ोर रिवायात कुरआन की तालीमात के भी खिलाफ (विरुद्ध) होती हैं और विश्वसनीय हदीसों के भी खिलाफ होती हैं।
हाल ही में “ग़ज़वा-ए-हिन्द” के नाम से कुछ बेहद कमज़ोर रिवायात को बुनियाद बनाकर अजीब-ओ-गरीब सियासी दावे किए जा रहे हैं, और लोगों को उभारा जा रहा है। “ग़ज़वा-ए-हिन्द” के नाम से यह रिवायात कुरआन मजीद के भी खिलाफ हैं, दूसरी ‘सहीह’ हदीसों के भी खिलाफ है और तारीख (इतिहास) के भी खिलाफ है। उन की बुनियाद पर जो दावे किए जा रहें हैं वे भी कुरआन और अन्य विश्वसनीय हदीसों की साफ तालीमात के बिलकुल खिलाफ हैं, लेकिन सिर्फ अपनी चाहत को दीनी बुनियाद देने के लिए इन हदीसों का सहारा लेने की कोशिश की जा रही है। आगे हम इन रिवायात पर मुख्तलिफ (विभिन्न) पहलुओं से बहस करेंगे। असल में यह पाँच रिवायात हैं।
पहली रिवायत यह है:
“मेरी उम्मत के दो गिरोह को अल्लाह जहन्नुम की आग से बचाएगा। एक वह जो हिन्द में लड़ेगी और दूसरा वह जो ईसा इब्न मरियम के साथ होगा”।
दूसरी रिवायत यूँ है:
हज़रत अबू हुरैरा कहते हैं के रसूलअल्लाह (स.व) ने हमसे ग़ज़वा-ए-हिन्द का वादा फ़रमाया था। इसलिए अगर मैं उसे पालूं तो उसमें अपनी जान और माल लड़ा दूँ। फिर अगर मैं उस में मारा गया तो मैं बेहतरीन शहीद होऊंगा और अगर मैं लौट आया तो मैं आज़ाद अबू हुरैरा होऊंगा।
तीसरी रिवायत यह है:
“हज़रत अबू हुरैरा फरमाते हैं की इस उम्मत में सिंध और हिन्द की तरफ एक लश्कर रवाना होगा। अगर मुझे ऐसी किसी मुहिम में शिरकत का मौका मिला और मैं उस में शरीक हो कर शहीद हो गया तो ठीक। और अगर मैं लौट आया तो मैं आज़ाद अबू हुरैरा होऊंगा जिसे अल्लाह ने जहन्नुम की आग से आज़ाद कर दिया होगा”।
चौथी रिवायत यह है:
“ज़रूर तुम्हारा एक लश्कर हिन्द से जंग करेगा। अल्लाह उन मुजाहिदीन को फतह अता करेगा, यहाँ तक के वह उन के बादशाहों को बेड़ियों में जकड़ कर लायेंगे। अल्लाह इन मुजाहिदीन की मग़फिरत फरमाएगा। फिर जब वह वापस पलटेंगे तो हज़रत ईसा को शाम में पायेंगे”। इस पर हज़रत अबू हुरैरा ने कहा के अगर मैंने वह ग़ज़वा पाया तो अपना नया और पुराना माल सब बेच दूंगा और इस में शिरकत करूँगा। फिर जब अल्लाह हमें फतह अता कर दे और हम वापिस पलट आयें तो मैं एक आज़ाद अबू हुरैरा होऊंगा जो शाम के मुल्क में इस शान से आएगा के वहां ईसा इब्न मरियम को पायेगा। या रसूलअल्लाह! उस वक़्त मेरी शदीद ख्वाहिश होगी के मैं उनके पास पहुँच कर उन्हें बताऊँ के मैं आप का सहाबी[2] हूँ”। यह सुन कर रसूलअल्लाह (स.व) मुसकुरा पड़े और हंस कर फरमाया। “बहुत मुश्किल, बहुत मुश्किल”।
पाँचवीं रिवायत यह है:
बैत अलमुक़द्दस (यरूशलेम) का एक बादशाह हिन्द की तरफ एक लश्कर रवाना करेगा। मुजाहिदीन सरज़मीन-ए-हिन्द को पामाल कर डालेंगे। उस के ख़ज़ानों पर कब्ज़ा कर लेंगे, फिर वह बादशाह उन खजानों को बैत अलमुक़द्दस की आराइश (सौन्दर्यकरण) के लिए इस्तेमाल करेगा। वह लश्कर हिन्द के बादशाहों को बेड़ियों में जकड़ कर अपने बादशाह के सामने पेश करेगा। उस के मुजाहिदीन बादशाह के हुक्म से मशरिक और मग़रिब (पूर्व और पश्चिम) के दरमियान (बीच) का सारा इलाका फतह कर लेंगे और दज्जाल के खुरुज (निकलने) तक हिन्द में कयाम करेंगे (रहेंगे)”।
ऊपर दर्ज पाँचों रिवायात में पहली हज़रत सौबान से रिवायत होना बताई जाती है। तीन हदीसें हज़रत अबू हुरैरा से रिवायत होना बताई जाती है और आखिरी हदीस “कअब” से रिवायत होना बताई जाती है। अगर ध्यान से जायज़ा लिया जाए तो यह असल में एक ही रिवायत है जिसके अलग-अलग हिस्सों को इन पाँच रिवायतों में बयान किया गया है। यह रिवायात मुस्नद अहमद बिन हन्बल और नसाई की “किताब अल्-फितन” में आयी हैं।
इन हदीसों के रावियों[3] का विश्लेषण
यह सारी रिवायात रावियों के ऐसे सिलसिले से बयान (संचारित) की गयी हैं जिन के हर सिलसिले में कमज़ोर और नाकाबिल-ए-एतमाद (अविश्वसनीय) ‘रावी’, यानी जिन पर हदीस लेने के मामले में विश्वास नहीं किया जा सकता, मौजूद हैं। इस लिए इन को दलील के तौर पर पेश करना निहायत गलत है। वाज़ेह (साफ) रहे कि अगर रिवायत के किसी चरण में एक रावी भी नाकाबिल-ए-एतमाद हो तो वह रिवायत ज़ईफ़ और कमज़ोर बन जाती है। उदाहरण के तौर पर रिवायात में पहली रिवायत में ‘असद बिन मूसा’ नामी एक रावी मौजूद है। इस व्यक्ति को मुहद्दिसीन (हदीस विशेषज्ञों) ने नाकाबिल-ए-एतमाद करार दिया है। इसमें एक और रावी का नाम “बकिय्यह” है। इस को भी हदीस के माहिरीन (विशेषज्ञों) ने नाकाबिल-ए-एतमाद घोषित किया है। इसमें एक और रावी का नाम “याह्या बिन मईन” है। मुहद्दिसीन के नज़दीक यह भी एक बिलकुल नाकाबिल-ए-एतमाद व्यक्ति है। रिवायत के इस सिलसिले में दो और लोग भी हैं। एक अबू बक्र ज़ुबैदी और दूसरे अब्दुल आला बिन अदि अल-बहरानी; मुहद्दिसीन के अनुसार यह दोनों कौन हैं इस बारे में कुछ नहीं मालूम। ज़ाहिर है कि जो व्यक्ति रसूलअल्लाह (स.व) की कोई बात सीधे किसी व्यक्ति से सुनकर आगे सुनाता है, उसे एक मशहूर, मारुफ़ और आलिम आदमी होना चाहिए।
इस रिवायत का सारा सिलसिला नाकाबिल-ए-एतमाद है और बस आखिर में एक सहाबी का नाम लगाया गया है। ऐसी रिवायत पर भला कैसे एतमाद (भरोसा) किया जाये और दीन के मामले में इसे बतौर सबूत कैसे पेश किया जाए?
बाकी चारों रिवायात का भी यही हाल है। इन रावियों में एक व्यक्ति का नाम ज़करिया बिन अदी है जिस को हदीस के उलमा नाकाबिल-ए-एतमाद समझते हैं। इन रावियों में उबैदूल्लाह बिन उमर और ज़ैद बिन अबी अनीसा भी हैं जिन के बारे में मुहद्दिसीन का कहना है कि इन के मामले में सावधानी बरतनी चाहिए इसलिए कि इन दोनों के अन्दर खामियां पायी जाती हैं। एक और रावी का नाम जुबैर बिन अबीदा है। इस व्यक्ति के बारे में मुहद्दिसीन की राय बहुत ही बुरी है और इस को नाकाबिल-ए-एतमाद करार दिया है।
एक और रावी “हुशैम” हैं इनके बारे में भी मुहद्दिसीन की राय बहुत बुरी है। यह साहब ऐसे लोगों से हदीस रिवायत करते थे जिन से इनकी कभी मुलाक़ात ही नहीं हुई।
ऊपर दर्ज रिवायात में दूसरी रिवायत में कहा गया है कि “सफवान बिन उमर” ने रसूलअल्लाह (स.व) से यह रिवायत बयान की है। सफवान बिन उमर एक तबा ताबई[4] थे। यानी रसूलअल्लाह (स.व) से किसी सहाबी (साथी) ने यह बात सुनी होगी। फिर उन से यह बात किसी ताबई[5] ने सुनी होगी और फिर सफवान ने सुनी होगी। इस रिवायत में कुछ नहीं मालूम के किसने यह बात रसूलअल्लाह (स.व) से सुनी। फिर उस सहाबी से किस ने सुनी यानी ना सहाबी का नाम मालूम ना उस ताबई का नाम मालूम। जब कि सफवान के नीचे बाकी रावी भी झूठे और नाकाबिल-ए-एतमाद हैं। अब ऐसी रिवायत को दीन के तौर पर कैसे कबूल किया जाए?
ऊपर दर्ज हदीसों में तीसरी रिवायत के रावियों के बारे में यह कहा गया है की यह हदीस हसन बसरी ने अबू हुरैरा से सुनी है। हालांकि मुहद्दिसीन के मुताबिक हसन बसरी ने अबू हुरैरा से कभी मुलाक़ात भी नहीं की।
इसी तरह ऊपर दर्ज रिवायात में चौथी रिवायत का एक रावी “नुएम बिन हम्माद मरुज़ी” है। इस व्यक्ति को मुहद्दिसीन और उलमा ने झूठा करार दिया है। इसी सिलसिले में “बकिय्या बिन वलीद” भी शामिल हैं जिस को मुहद्दिसीन नाकाबिल-ए-एतमाद करार देते हैं। इसी तरह इस रिवायत में एक साहब सफवान बिन अम्र कहते हैं कि यह हदीस मैं ने अपने उस्ताद से सुनी है। अब यह उस्ताद कौन थे ? भरोसे के काबिल थे या नहीं ? यह कुछ नहीं मालूम इसलिए ऐसी किसी बिना उसूल की बात को सही रिवायत बता कर उससे दलील पेश करना ऐसी गलती है जो किसी ईमानदार आदमी को शोभा नहीं देती।
इसी तरह पाँचवीं रिवायत के सिलसिले में भी नुएम बिन हमाद मौजूद है जिसे मुहद्दिसीन ने झूठा करार दिया है। इसी रिवायत के सिलसिले में एक साहब “ हकीम बिन नाफी” कहते हैं की यह हदीस मैं ने अपने एक उस्ताद से सुनी। अब यह उस्ताद कौन हैं और उनकी क्या स्थिति है, इस के बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम। यह रिवायत “मुनकते” भी है यानी इसमें यह नहीं बताया गया कि यह हदीस एक सहाबी “कअब” से किसने सुनी है। एक और अहम बात यह है कि यह “कअब” कौन हैं। क्या यह कोई सहाबी हैं? अगर यह सहाबी हैं तो कौन हैं। अगर यह “अबू मालिक कअब बिन आसिम अशअरी” हैं तो इनका पूरा नाम यहाँ क्यों दर्ज नहीं किया गया? क्योंकि जहाँ भी किसी सहाबी का नाम आता है तो मुहद्दिसीन का यह तरीका है कि पूरा नाम दर्ज करते हैं ताकि कोई ग़लतफहमी न हो और साथ में “रज़ी अल्लाहु अन्हु” भी लगाते है, जबकि यहाँ नाम भी सिर्फ “कअब” दर्ज किया गया है और इसके साथ रज़ी अल्लाहु अन्हु भी नहीं लगाया गया। फिर क्या यह “कअब अल-अहबर” हैं जो एक ताबई थे। लेकिन इमाम बुख़ारी के मुताबिक वह एक नाकाबिल-ए-एतमाद व्यक्ति थे’।
इन रिवायात का कुछ और पहलुओं से जायज़ा:
अब तक की सारी बहस से यह बात दिन के उजाले की तरह साफ हो गयी है कि ग़ज़वा-ए-हिन्द के बारे में दर्ज यह सारी हदीसें बेहद कमज़ोर और ज़ईफ़ हैं और इन से कोई दलील पेश करना गलत है। हालांकि, कोई आदमी कह सकता है कि फिर भी मैं इनको ठीक मानता हूँ। ऐसे लोगों के लिए हम इन रिवायात के कुछ और पहलुओं की तरफ ध्यान दिलाना चाहते हैं:
1- एक यह कि इन हदीसों में “एक लश्कर” का ज़िक्र आया है लेकिन इस रिवायत को अपने सियासी मकसद के लिए इस्तेमाल करने वाले इसका अनुवाद गलत तौर पर “लश्करों” (बहुवचन) कर रहे हैं। यह धोखा है जिस के तहत यह लोग ग़ज़वा-ए-हिन्द को “एक लड़ाई” के बजाय भारतीय उपमहाद्वीप में कयामत तक होने वाली सारी लड़ाइयों पर लागू कर रहे हैं। खुद इस रिवायत के शब्दों के अनुसार यह गलत है।
2- इन में से एक हदीस में “सिंध” शब्द का भी प्रयोग किया गया है जबकि सिंध तो इस वक़्त भी मुसलमानों ही के पास है। इसलिए इस पर फ़ौज भेजने का क्या मतलब ?
3- इन सब रिवायात का जायज़ा लेने से यह बात साफ हो जाती है कि इन में भविष्य के ऐसे ज़माने का उल्लेख (ज़िक्र) है जब कयामत की निशानियाँ बिलकुल साफ़ हों गी। दुनिया की मौजूदा राजनीतिक वास्तविकता (सियासी हकाइक) बिलकुल बदल चुकी होगी। इज़राइल नष्ट हो चुका होगा। बैतुल-मकदस मुसलमानों के कब्ज़े में आ चुका होगा। फलस्तीन, सीरिया, जॉर्डन, ईराक, मध्य एशियाई देश ईरान और अफ़गानिस्तान सब एक राज्य बन चुके होंगे। फिर एक ज़बरदस्त लश्कर हिन्द की तरफ रवाना होगा जो हिन्द को जीत कर इसके शासकों को कैद करके लाएगा। इस जीत से जो माल प्राप्त होगा वह बैतुल-मकदस के सौन्दर्येकरण के लिए इस्तेमाल होगा। यही वह वक़्त होगा जब हज़रत ईसा (स.व) फलस्तीन में उतर हो चुके होंगे। यानी इन रिवायात के हिसाब से यह ज़रूरी है कि हिन्द पर हमले से पहले मुसलमानों की विश्वव्यापी हुकूमत वजूद में आ जाए और इज़राइल मुसलमानों के अधिकार में आ जाए। ज़ाहिर है कि फिलहाल तो ऐसा है नहीं। इस वक़्त तो इज़राइल के नष्ट होने और मुसलमानों की विश्वव्यापी हुकूमत के कायम होने की संभावना कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आती। यानी पहले मुसलमानों की आलमी (विश्वव्यापी) हुकूमत बननी है फिर इज़राइल को खत्म होना है, उसके बाद हिन्द पर जो हमला होगा वह इन रिवायात की वास्तविकता स्थापित करेगा।
इन रिवायात में एक अहम बात यह भी है कि जब यह लश्कर वापिस बैतुल-मकदस पहुंचेगा तो हज़रत ईसा (स.व) उतर चुके होंगे। सही मानी जाने वाली हदीसों के मुताबिक हज़रत ईसा (स.व) के आने से पहले दज्जाल (Antichrist) आ चुका होगा, सूरज पश्चिम (मग़रिब) से उदय और याजूज-माजूज (Gog-Magog) हर बुलंदी से निकल पड़ेंगे। दज्जाल के पास इतनी बड़ी ताक़त होगी की वह कुछ भी कर सकेगा। यहाँ तक की एक मुर्दा व्यक्ति को ज़िन्दा भी कर सकेगा। सही हदीस में इसके अलावा भी बहुत सारी निशानियों (अलामतों) का ज़िक्र है।
ज़ाहिर है की इस वक़्त अभी ना तो दज्जाल ज़ाहिर हुआ है, ना अभी सूरज पश्चिम से निकला है और ना याजूज-माजूज निकले हैं। इसलिए हज़रत ईसा (स.व) के आने का जो वक़्त बयान होता है वह भी करीब में मुमकिन नहीं है। इसका मतलब यह है की इन रिवायात में बयान हुए ग़ज़वा-ए-हिन्द की भी अभी कोई संभावना नहीं है।
यानी यह रिवायात अगर सही भी होतीं तो भी इन में बयान हुई ग़ज़वा-ए-हिन्द की शर्तें की अभी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। इन रिवायात में कयामत के बिलकुल पास के ज़माने का ज़िक्र है और पहले वह सब शर्तें पूरी होंगी। इसलिए मौजूदा ज़माने के किसी राजनीतिक विवाद पर ग़ज़वा-ए-हिन्द की रिवायात लागू करना सरासर गलत है।
तारीखी (ऐतिहासिक) और भौगोलिक मुग़ालते (भ्रांतियां):
दुनिया में विभिन्न देशों के नाम और उन का भूगोल बदलता रहा है। सरहदें बदलती रही हैं और नए तथ्य और वास्तविकताएं वजूद में आती रही हैं। इसके साथ नामों के अर्थ भी बदलते रहें हैं। उदाहरण के तौर पर आज से पन्द्रह सौ साल पहले सिर्फ अरब प्रायद्वीप (Arabian Peninsula) को “सरज़मीने अरब” कहा जाता था। आज की अरब दुनिया का उससे कहीं ज़्यादा क्षेत्र (रकबा) और आबादी है। उस ज़माने के चीन और आज के चीन में बहुत बड़ा अंतर है। यही हाल हर जगह का है।
मगर “ग़ज़वा-अ-हिन्द” से राजनीतिक अर्थ लेने वाले कुछ गुट/गिरोह हदीस तो आज से पन्द्रह सौ बरस पहले वाली सुनाते हैं, मगर उस में “हिन्द” शब्द से आज का भारत (India) मुराद (तात्पर्य) लेते हैं। उस ज़माने में “हिन्द” के शब्द से क्या अर्थ लिए जाते थे इसके संबंध में “उर्दू दायरा-ए-मारिफ-ए-इस्लामी”- भाग-23 पेज-173 पर दर्ज है:
“प्राचीन मिस्र के मुसलिम भूगोलशास्त्री “हिन्द” शब्द को सिंध के पूर्वी क्षेत्रों (मशरिकि इलाकों) के लिए इस्तेमाल करते थे। हिन्द से दक्षिण पूर्व एशियाई देश भी मुराद लिए जाते थे। इसलिए जब “हिन्द के बादशाह” और “हिन्द के इलाके” कहा जाता था तो उससे सिर्फ हिन्द ही मतलब नहीं था, बल्कि इसमें इंडोनशिया, मलाया आदि शामिल समझे जाते थे और जब “सिंध” कहा जाता था तो इसमें सिंध, मकरान, बलूचिस्तान, पंजाब का कुछ हिस्सा और पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत शामिल समझे जाते थे। ऐसा कोई एक नाम नहीं था जो पूरे हिंदुस्तान के लिए लिया जा सके। हिन्द और सिंध मिलकर हिंदुस्तान को प्रदर्शित करते थे। अरबी और फारसी में हिंदुस्तान का भौगोलिक हाल बयान किया जाता था तो इसमें हिन्द और सिंध के हालात शामिल होते थे। यह भी कहा गया है की मुसलमानों के हिंदुस्तान में आने से पहले कोई नाम ऐसा न था जो पूरे देश पर लागू हो। प्रत्येक प्रांत का अपना अलग नाम था। फारस वालों ने जब इस देश के एक प्रांत पर कब्जा कर लिया तो उस दरया के नाम पर जिसे अब सिंध कहते हैं, “हिन्धू” नाम रखा क्योंकि प्राचीन ईरान पहलवी भाषा और संस्कृत में “स” और “ह” को आपस में बदल लिया करते थे, इसलिए फारस वालों ने “हिन्धू” कहकर पुकारा। अरबों ने सिंध को तो सिंध ही कहा, लेकिन इसके अलावा हिंदुस्तान के अन्य क्षेत्रों को हिन्द कहा और अंत में यही नाम पूरी दुनिया में फैल गया। फिर “ह” का अक्षर “अ” में बदल कर यह नाम फ्रेंच में इंड (Ind) और अंग्रेजी में इंडिया (India) की सूरत में प्रसिद्ध हो गया”।
इसे से यह बात बिलकुल साफ हो जाती है कि रसूलअल्लाह (स.व) के ज़माने में जब यह शब्द इस्तेमाल होता तो “हिन्द” से मुराद सिर्फ भारत नहीं बल्कि बर्मा, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि यह सब देश इसमें आ जाते थे। इसलिए इस शब्द को केवल वर्तमान भारत के लिए इस्तेमाल करना ठीक नहीं होगा।
यही हाल “सिंध” शब्द का है। इसे अगर आज के अर्थ में लिया जाये तो सवाल यह है की “सिंध” तो पूरा मुसलमानों का है और पाकिस्तान का हिस्सा है। क्या इसको दुबारा जीतना मुराद है ?
दीन की बाकी तालीमात (शिक्षाओं) के विरुद्ध:
इन रिवायात के अक्सर हिस्से दूसरी दिनी तालीमात से भी टकराते हैं। उदाहरण के तौर पर इसमें एक जगह हज़रत अबु हुरैरा की ज़ुबानी यह कहा गया है की वह ग़ज़वा-अ-हिन्द के लिए जाने वाले लश्कर और उसके बाद हजरत ईसा (स.व) से मुलाकात की आरज़ू रखते थे। यह आरज़ू हर दृष्टि से बिल्कुल असंभव थी। हजरत ईसा (स.व) का आना तो क़यामत का संकेत बताया जाता है, तो क्या यह संभव था कि ईसा (स.व) रसूलअल्लाह (स.व) के बाद इतनी जल्दी तशरीफ़ लाते कि एक सहाबी उनसे मुलाकात करते? यह बात तो कुरआन की आयतों और कई मज़बूत हदीसों के खिलाफ है। साफ पता चलता है कि यह रिवायत झूठी बनाई गई है और इसमें नमक मिर्च डालने के लिए एक बड़े सहाबी का नाम इस्तेमाल किया गया है।
यह बात भी साफ होनी चाहिए कि अब क़यामत तक के लिए कुरआन और सुन्नत की शिक्षाओं पर अमल करना हमारे लिए ज़रूरी है। जंग के लिए धर्म की अहम शर्तों में यह शामिल है की जंग की घोषणा सिर्फ राज्य कर सकता है, जंग सिर्फ ज़ुल्म और अत्याचार के खिलाफ हो सकती है। अगर शांति समझौते मौजूद हों तो जंग की अनुमति नहीं है, और जंग तभी लड़ी जाए जब इतना हथियार और उपकरण मौजूद हो की जंग को जीता जा सके।
यह हिदायात (निर्देश) हमारे लिए क़यामत तक अनिवार्य हैं। इसलिए अगर कोई “ग़ज़वा-ए-हिन्द” बरपा होगा तो उसमें भी यही सारी शर्तें लागू होंगी। यह नाम लेकर लोगों में सनसनी फ़ेलाना, विभिन्न सशस्त्र संगठन खड़े करना, अपने बलबूते पर सशस्त्र गतिविधियों करना, राज्य के समझौतों को तोड़ने और फिर इन सब “ग़ज़वा-ए-हिन्द” का नाम दे कर सही ठहराना या लोगों में इसके ज़रिये नफरत और डर फैलाना सही नहीं है।
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टिप्पणियां
[1] सहीह हदीस: जिसके रावि (हदीस बयान करने वाले) काबिले एतबार हों, उनकी याददाश्त अच्छी हो और रिवायत का सिलसिला (रिवायत परंपरा) कटा हुआ न हो। और न ही वह किसी अधिक भरोसेमंद खबर के विरुद्ध जाती हो। इसके अलावा उसमें कोई और छुपी हुई कमी भी नहीं होनी चाहिए।
[2] सहाबी: रसूलअल्लाह (स.व) के साथी।
[3] रावी: हदीस बयान करने वाले।
[4] ताबी’ईन के बाद वाली पीढ़ी।
[5] ताबी’ईन: वह लोग जो रसूलअल्लाह (स.व) के समय में तो नहीं पर उन के बाद उनके साथियों के समय में मौजूद थे।