अकसर सुन्नत और हदीस दोनों शब्दों को पर्यायवाची या एक ही चीज़ समझा जाता है, लेकिन दोनों की प्रामाणिकता (सच्चाई) और विषय-वस्तु (मोज़ू) में बहुत अंतर है।
रसूलअल्लाह (स.व) के कथन (क़ौल), कार्य (फेअल) और स्वीकृति एवं पुष्टि (इजाज़त और तस्दीक) की रिवायतों (लिखित परंपरा) या ख़बरों को इस्लामी परिभाषा में ‘हदीस’ कहा जाता है।
यह हदीसें इस्लाम के असल दो स्रोत (माखज़) यानी कुरआन और सुन्नत से मिलने वाले दीन में कुछ घटाती या बढ़ाती नहीं हैं बल्कि, हदीसें इन दोनों स्रोत में मौजूद चीज़ों की व्याख्या करने (समझाने) और उन्हें स्पष्ट (साफ़) करने का काम करती हैं, और हमें बताती हैं कि रसूलअल्लाह (स.व) ने किस उदाहरणात्मक रूप (मिसाली तरीके) में इस्लाम का पालन किया। हदीस के विद्वानों (आलिमों) का कहना है कि एक हदीस सही भी हो सकती है और गलत भी।[1] इसी वजह से हदीसों को ज़न्नी (अनुमानिक अथवा अनिश्चित) भी कहा जाता है।
दूसरी तरफ सुन्नत शब्द का अर्थ है “व्यस्त मार्ग” या वह रास्ता जिस पर कसरत से चला गया हो, दीन में इसका मतलब है अल्लाह के पैगंबर इब्राहीम (स.व) से चली आ रही वह प्रथाएं या कार्य (अमल) जिनको अल्लाह के आखिरी पैगंबर मुहम्मद (स.व) ने फिर से जिंदा किया और जो कुछ बिगाड़ उनमें आ गया था उसे सुधार कर कुछ इज़ाफे के साथ अपने मानने वालों के लिए दीन के रूप में जारी कर दिया।[2] कुरआन ने इन शब्दों में मुहम्मद (स.व) को इब्राहीम (स.व) के तरीके पर चलने का हुक्म दिया है:
ثُمَّ أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ أَنِ اتَّبِعْ مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِينَ
[١٦: ١٢٣]
फिर हमने तुम्हारी तरफ वही की के इब्राहीम के तरीके की पैरवी करो, जो एकाग्र था और शिर्क करने वालों में से ना था (16:123)
निम्नलिखित तीन पहलुओं से हदीस और सुन्नत का फ़र्क और साफ़ हो जाता है;
सबसे पहले, हदीस अप्रामाणिक या झूठी हो सकती है लेकिन सुन्नत नहीं, सुन्नत कुरआन जितनी ही प्रामाणिक है। यह फ़र्क इसलिए है क्योंकि हदीस सिर्फ कुछ ही लोगों से होती हुई हम तक पहुंचती है इसलिए यह पूरी तरह खबर पहुँचाने वाले के किरदार, याददाश्त और अक्ल पर निर्भर है, और इसमें कही भी गलती हो सकती है भले ही खबर देने वाला बहुत नेक और सच्चा ही क्यों न हो। दूसरी तरफ सुन्नत सिर्फ कुछ ही लोगों के ज़रिये नहीं बल्कि एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक पहुँचती है, जब इतनी बड़ी संख्या में लोग किसी चीज़ को अगली पीढ़ियों तक पहुंचाते है तो उसे में गलती होने की गुंजाइश बाकी नहीं रह जाती। कुछ लोगों का किरदार, अक्ल और याददाश्त तो धोखा दे सकती है लेकिन जब पूरी पीढ़ी एक बात आगे पहुंचाए तो इतनी बड़ी संख्या में सब लोग गलती नहीं कर सकते। इसके अलावा पूरी मुस्लिम उम्मत में सुन्नत की प्रमाणिकता को लेकर आम सहमती (इज्मा) है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो लोग सुन्नतों का पालन नहीं करते वह भी इनकी सच्चाई की ज़मानत देते हैं।
दूसरे, सुन्नत का संबंध पूरी तरह से इस्लाम के अमली पहलुओं से है जैसे कि नमाज़, हज, निकाह और वुज़ू। वह चीज़ें जिनका संबंध ईमान, आस्था, इतिहास, वही के अवसर (शान-ए-नुज़ूल) और कुरआन की व्याख्या (तफसीर) से है सुन्नत के दायरे में नहीं आती, दूसरी तरफ हदीस इस्लाम के किसी एक पहलू तक सीमित नहीं है, इसकी विषय-वस्तु में अमली चीज़ों से लेकर आस्था, इतिहास, कुरआन और खुद सुन्नत की व्याख्या तक सारी चीज़ें शामिल हैं।
तीसरे, सुन्नत की बुनियाद हदीस नहीं है; उदाहरण के लिए हम नमाज़, हज आदि का तरीका पूरी तरह से जानते और उसका पूरा पालन सिर्फ इसलिए नहीं करते हैं कि कुछ बयान करने वालों ने हदीसों में बयान किया और समझा दिया है बल्कि इसके उलट हमारे परिवेश (आस-पास) में हर व्यक्ति या तो इन सुन्नतों का पालन करता है और अगर पालन नहीं भी करता तो भी इनकी सच्चाई की गवाही देता है, दूसरे शब्दों में सुन्नत इस्लाम का एक स्वतंत्र (आज़ाद) स्रोत है। हालांकि कुछ हदीसों में सुन्नत का आलेख (रिकॉर्ड) मिल सकता है जिस तरह कुछ हदीसों में कुरआन की कुछ आयात की व्याख्या मिल सकती है, लेकिन जिस तरह कुरआन का आलेख मिलने से हदीसें कुरआन के बराबर नहीं हो जाती उसी तरह सुन्नत का आलेख मिलने से हदीसें सुन्नत के बराबर नहीं हो जातीं।