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हमारी दावत
दीन अल्लाह तआला की हिदायत है जो अल्लाह ने पहले इंसान की प्रकृति और स्वभाव में रखी और उसके बाद उसकी सभी ज़रूरी तफ़्सील (विवरण) के साथ अपने पैग़म्बरों के माध्यम से इंसान को दी है। इस सिलसिले की आख़री कड़ी पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम हैं। इस लिहाज़ से मैं कहता हूं कि दीन का मात्र स्रोत पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल. की हस्ती है और सच्चा दीन अब वही है जिसे आप सल्ललाहो अलैहि वसल्लम अपने कथन, आपके कर्म और मंजूर किए हूई बातों व कामों से दीन क़रार दें1 (1. सूरह अलजुमआ 62:2)
दुनिया के सभी इंसानों को हम इस दीन पर ईमान लाने और इसके मुताबिक़ अपने व्यक्तिगत व सामूहिक जीवन को दुरुस्त करने की दावत देते हैं। जो लोग इस दावत को स्वीकार करें उनका बदला मरने के बाद जन्नत है जिसकी लम्बान चैड़ान पूरे बृहमाण्ड के फैलाव की तरह है, जिसमें जीवन के साथ मौत, ख़ुशी के साथ ग़म, आनन्द के साथ पीड़ा, संतोष के साथ असंतोष, आराम के साथ कठिनाई वग़ैरह की कोई कल्पना और जगह नहीं है, जिसका आराम सदा का आराम है, जिसका आनन्द असीमित है जिसके रात दिन हमेशा के हैं, जिसकी सलामती अनन्तकाल की है, जिसकी ख़ुशी कभी ख़त्म न होने वाली है, जिसकी ख़ूबसूरती कभी मन्द नहीं पड़ने वाली है। अल्लाह ने अपने बन्दों के लिए इसमें वो कुछ उपलब्ध किया है जिसे न आंखों ने देखा, न कानों ने सुना और न किसी इंसान के दिल में उसका कभी कोई विचार ही आया।2(2. अलअअला 87: 14.17)
इस समय जो लोग इस दीन को मानने वाले हैं, उन्हें हम दावत देते हैं कि ख़ुदा की इस जन्नत को पाने के लिए अपने अमल को भी वो अपने ईमान के अनुसार कर लें, ख़ुदा और उसके बन्दों के अधिकारों को पूरी ईमानदारी और सच्चाई के साथ अदा करें और किसी के जान व माल और इज़्ज़त के खि़लाफ़ कोई ज़्यादती न करें।3(3. अलनहल 16:90)
हम उन्हें दावत देते हैं कि अपने माहौल और अपने कार्य क्षेत्र में वो एक दूसरे को अच्छी बातों की नसीहत करें और बुराई से रोकें। यह उनका फ़र्ज़ है जो उनके रब ने उनके उपर लागू किया है। यह फ़र्ज़ बाप को बेटे के लिए और बेटे को बाप के लिए, पति को पत्नि के लिए और पत्नि को पति के लिए, भाई को बहन के लिए और बहन के भाई के लिए, दोस्त को दोस्त के लिए और पड़ोसी को पड़ोसी के लिए ग़रज़ यह कि हर आदमी को अपने सम्पर्क में आने वाले हर आदमी के लिए अदा करना है। इसलिए जब वो देखें कि उनके सम्पर्क या सम्बंध वाले किसी आदमी ने कोई ग़लत तरीक़ा अपनाया है उन्हें चाहिए कि अपने इल्म और अपनी क्षमता व योग्यता के मुताबिक उसे सही तरीक़ा अपनाने की नसीहत करें।4 (4. अलतौबा 9:71)
दीन व दुनिया के किसी मामले में उनकी भावनाएं, इच्छाएं, हित या पूर्वाग्रह अगर उन्हें इंसाफ़ के रस्ते से हटाना चाहें तो हक़ व इंसाफ़ पर जमे रहें, बल्कि यह अगर गवाही की मांग करें तो जान की बाज़ी लगाकर उनकी यह मागं पूरी करें। सच्ची बात कहें, सच के सामने अपना सर झुका दें, इंसाफ़ की गवाही दें और अपने अक़ीदे व अमल (आस्था व आचरण) में इंसाफ़ से हट कर कभी कोई चीज़ न अपनाएं।5 (5. अलनिसा 4:135; अलमायदा 5:8)।
उन्हें उत्पीड़न का निशाना बनाया जाए तो सब्र करें6 (6. अलसजदा 41:33-35) और मुमकिन हो तो जहां यह स्थिति पैदा हो उस जगह को छोड़ कर ऐसी जगह चले जाएं जहां वो खुल कर अने दीन पर अमल कर सकें।7(7. अलनिसा 4:97)
फ़राही मदरसे के बड़े आलिमों ने अल्लाह की तौफ़ीक़ से सच्चे दीन को आज के युग में फ़िक़्ह व कलाम और फ़लसफ़ा व तसव्वुफ़ की हर मिलावट से अलग करके पूरा का पूरा और ख़ालिस क़ुरआन व सुन्नत के आधार पर पेश कर दिया है। इस दीन का प्रचार प्रसार इसके अनुसार लोगों की शिक्षा व प्रशिक्षण और इसकी रोशनी में मुसलमानों के धार्मिक व्यवहार को फिर से बनाना एक ‘‘जिहादे कबीर” (बहुत बड़ा संघर्ष) है। हम उन्हें दावत देते हैं कि अपने समर्थन, अपने समय और अपने संसाधनों से वो इस जिहाद में हमारी मदद करें। यह दीन की मदद का काम है जिससे ज़्यादा कोई चीज़ भी मोमिन बन्दे को अज़ीज़ नहीं होना चाहिए8 (8. अलतौबा 9:24)।
“ईमान वालो, अल्लाह के मददगार बनो, जिस तरह ईसा इब्ने मरियम ने हवारियों से कहा था कौन अल्लाह की राह में मेरा मददगार बनता है? हवारियों ने जवाब दियाः ‘‘हम अल्लाह के मददगार हैं”। (अलसफ़ 61:14)
2012