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इस्लाम के मौलिक सिद्धांत
हमने दीन को जिस तरह समझा है, उसमें तीन चीज़ें मौलिक सिद्धांतों के रूप में हैः
पहला यह कि क़ुरान सत्य व असत्य को अलग अलग करने वाली कसौटी और तराज़़ू (‘‘फ़ुरक़ान “ और ‘‘मीज़ान”) है और जो भी आसमानी संदेश जहां कहीं भी जब कभी भी आया उसके लिए एक ‘‘मुहैयमिन” (निगरानी करने वाली) किताब है। यह क़ुरआन इस लिए उतारा गया है कि दीन व शरीअत (दीन को बरतने की नियामावली) के मामले में लोगों के बीच सभी मतभेदों का फ़ैसला कर दे और इसके नतीजे में वो ठीक ठीक हक़ (सत्य) पर क़ायम हो जाएं। क़ुरआन ने अपनी यह पोज़ीशन अपने लिए ख़ुद बयान की है, लिहाज़ा इसकी बुनियाद पर जो बातें उसके बारे में सिद्धांत के रूप में मानना चाहिएं वो ये हैः
पहली बात, क़ुरआन का मतन (मूल पाठ और शब्द रचना) बिल्कुल निश्चित और निर्धारित है। यह वही है जो ग्रन्थ में लिखा हुआ है और जिसे पश्चिमी जगत के कुछ भागों को छोड़ कर पूरे विश्व में मुस्लिम उम्मत की विशाल बहुसंख्या इस समय तिलावत ( उच्चारण) कर रही है। यह तिलावत जिस क़िरअत (पढ़ने के ढंग, लेय या धुन) पर की जाती है उसे ‘क़िरअत-ए-आम्मा’ (पढ़ने का सामान्य ढंग) कहा जाता है। इसके अलावा दूसरी कोई क़िरअत न क़ुरआन है औन न उसे क़ुरआन के तौर पर पेश किया जा सकता है।
दूसरी बात, क़ुरआन क़तई दलील है। इसका अर्थ यह है कि क़ुरआन में यह पूरी शक्ति है कि अगर इंसान उसका अनुसरण करें तो यह क़ुरान उन्हें उस मक़सद और मंशा तक पहुंचा दे जिसके लिए उन्हें दुनिया में लाया गया है। यह केवल ज्ञान की कमी और क़ुरआन को ग़ौर से समझने में कमी का दोष है जिसकी वजह से इंसान कभी कभी उसे समझने में अक्षम रहता है। क़ुआन की भाषा और शैली से इस अक्षमता का कोई सम्बंध नहीं है। क़ुरआन अपनी मंशा बयान करने में कभी असफ़ल नहीं रहता।
तीसरी बात, क़ुरआन की वो सब आयतें ‘‘मोहकम” (ठोस और स्पष्ट) हैं जिन पर उसकी हिदायत (आम दिशा निर्देश) निर्भर है और ‘‘मुतशाबिहात” (न समझ में आने वाली) केवल वो आयतें हैं जिनमें आखि़रत की नेअमतों में से किसी नेअमत का बयान मिसाल और रूपक के अंदाज़ में हुआ है या अल्लाह के गुणों व कार्यों और हमारे ज्ञान व अवलोकन से परे उसके किसी जगत की कोई बात उदाहरण के रूप में बयान की गयी है। ये आयतें न अनिश्चित हैं और न उनके अर्थ में कोई भ्रम है। उनके शब्द भी अरबी मुबीन (साफ़ अरबी भाषा) के ही शब्द हैं और उनके अर्थ हम बिना किसी भ्रम या संकोच के समझते हैं। उनकी वास्तविकता को अलबत्ता हम इस दुनिया में नहीं जान सकते, लेकिन इस जानने और न जानने का क़ुरआन के संदेश को समझने से कोई सम्बंध नहीं है, इसलिए हम इसके पीछे नहीं पड़ते।
चैथी बात यह कि, क़ुरआन से बाहर कोई ‘‘वह्यि” (आसमानी संदेश) चाहे वह ख़ुफ़िया तरीक़े से आए या खुले रूप से, यहां तक कि वह पैग़म्बर अलैहिस सलाम भी जिन पर क़ुरआन उतरा, क़ुरआन के किसी हुक्म में कोई बदलाव या संशोधन नहीं कर सकते। हर वह्यि, हर आसमानी पैग़ाम, दिल में अल्लाह की तरफ़ से आने वाली हर बात, हर तरह की खोज और उसका नतीजा और हर तरह के विचार का अनुमोदन क़ुरआन पर निर्भर है। अबु हनीफ़ा, शाफ़ई, बूख़ारी, मुस्लिम, अशअरी व मातरेदी और जूनैद व शिबली सब पर उसकी हुकूमत है और उसके खि़लाफ़ इनमें से किसी की कोई चीज़ क़ुबूल नहीं की जा सकती।
दूसरे यह कि ‘सुन्नत-ए-इब्राहीमी’ दीन (तरीक़े) की वह परम्परा है जिसे रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने उसको फिर से ज़िन्दा करने और बिगाड़ से निखारने के बाद और उसमें कुछ इज़ाफ़ों के साथ अपने मानने वालों में दीन के रूप में जारी किया है। क़ुरआन में रसूलुल्लाह सल्ल. को ‘‘मिल्लते इब्राहीमी” (इब्राहीम के तरीक़े) का अनुसरण करने का निर्दश दिया गया है। यह रिवायत (परम्परा) भी उसी का हिस्सा है। जिस तरह सहाबियों (पैग़म्बर साहब के घनिष्ठ साथियों) के ‘इज्माअ’ (सर्व सहमित) और निरन्तर चले आ रहे सिलसिले से दीन हम तक पहुंचा है उसी तरह ‘सुन्नत-ए-इब्राहीमी’ की रिवायत भी हम तक पहुंची है। यह एक निर्विवाद बात है।
तीसरे यह कि, दीन केवल वही है जो क़ुरआन व सुन्नत में बयान कर दिया गया है। इसके अलावा कोई चीज़ दीन नहीं है न उसे दीन कहा जा सकता है। रसूल सल्ल. के ‘क़ौल व फ़अल’ (कथन और कर्म) के बारे में जो रिवायतें हम तक पहुंची हैं उन्हें ‘हदीस’ कहा जाता है। यह दीन को समझने का ज़रिया हैं दीन में कमी बेशी करने का माध्यम नहीं है। यह उस दीन का बयान हैं जो रसूलुल्लाह पर उतरे कलाम और रसूलुल्लाह के अमल व फ़रमान से साबित है। चुनांचि कोई बात अगर दीन के दायरे से बाहर की बात है तो ऐसी रिवायत को चाहे वह हदीस के नाम से बयान की गयी हो स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
अलबत्ता जिस हदीस के पूरी तरह ठीक होने पर जो आदमी संतुष्ट हो उसके लिए वह हदीस निश्चित रूप से एक हुज्जत बन जाती है इसके अनुसार अमल करना उसके लिए लाज़िम हो जाता है और उससे हटना उसके लिए जायज़ नहीं होता। बल्कि यह ज़रूरी होता है कि आप का कोई हुक्म या फ़ैसला अगर उसमें बयान किया गया है तो उसके सामने ख़ुद को झुका दे।
2010