जावेद अहमद ग़ामिदी
अनुवाद: आक़िब ख़ान
इस समय जो हालात कुछ इंतिहापसंद तहरीकों ने अपनी कार्रवाइयों से इसलाम और मुसलमानों के लिए पूरी दुनिया में पैदा कर दी है, ये उसी विचारधारा का बुरा नतीजा है जो हमारे मज़हबी मदरसों में पढ़ा और पढ़ाया जाता है, और जिसका प्रचार इस्लामी तहरीकें और मज़हबी सियासी संगठन सुबह शाम करते हैं। इसके विरुद्ध इस्लाम की सही विचारधारा क्या है? इसको हमने अपनी किताब मीज़ान में सबूतों के साथ पेश कर दिया है। ये असल में एक “जवाबी बयानिया” (counter narrative) है और हमने अक्सर कहा है कि मुसलमानों के समाज में मज़हब की बुनियाद पर फ़साद पैदा कर दिया गया हो तो सैक्यूलर-इज़म का प्रचार नहीं, बल्कि मज़हबी विचारधारा का एक जवाबी बयानिया ही हालात को ठीक कर सकता है। इसकी व्याख्या के लिए तो आपको हमारी उस किताब ही को पढ़ना चाहिए, लेकिन उसका जो हिस्सा इसलाम और रियासत (state) से संबंधित है, उसका एक सार हम यहां पेश कर रहे हैं:
1. इसलाम का पैग़ाम असल में व्यक्ति के लिए है। वो उसी के दिल और दिमाग़ पर अपनी हुकूमत क़ायम करना चाहता है। उसने जो दिशा-निर्देश समाज को दिए हैं, उसके मुख़ातिब भी असल में वो व्यक्ति ही हैं जो मुसलमानों के समाज में शासक की हैसियत से अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। लेहाज़ा ये सोच बिलकुल बेबुनियाद है कि रियासत का भी कोई मज़हब होता है और इसको भी किसी उद्देश्य-संकल्प (Objectives Resolution) के ज़रीये से मुसलमान करने और संवैधानिक तौर पर उसका पाबंद बनाने की ज़रूरत होती है कि इसमें कोई क़ानून क़ुरआन और सुन्नत के ख़िलाफ़ नहीं बनाया जाएगा। ये विचार जिन लोगों ने पेश किया और उसे मनवाने में कामयाबी हासिल की है, उन्होंने इस ज़माने की “क़ौमी रियास्तों” (nation-states) में स्थायी विभाजन की नींव रख दी है और उनमें बसने वाले ग़ैर मुस्लिमों को ये पैग़ाम दिया है कि वो असल में दूसरे दर्जे के नागरिक हैं जिनकी हैसियत ज़्यादा से ज़्यादा एक सुरक्षित अल्पसंख्यक (protected minority) की है और रियासत के असल मालिकों से वो अगर किसी अधिकार की मांग कर सकते हैं तो सिर्फ इसी हैसियत से कर सकते हैं।
2. जिन देशों में मुसलमान बहुसंख्यक है, वो सभी मिलकर सिर्फ एक हुकूमत क़ायम कर लें, ये हममें से हर शख़्स का सपना हो सकता है और हम इसको हक़ीक़त में बदलने के लिए कोशिश भी कर सकते हैं, लेकिन इस विचार की कोई बुनियाद नहीं है कि ये इस्लामी शरीयत का कोई हुक्म है जिसके खिलाफ़ जाने से मुसलमान गुनाह कर रहे हैं। हरगिज़ नहीं, ना ही “ख़िलाफ़त” कोई धार्मिक परिभाषिक शब्द (religious terminology) है और ना दुनिया स्तर पर इसको क़ायम करना इसलाम का कोई हुक्म है। पहली सदी हिज्री के बाद ही, जब मुस्लमानों के प्रसिद्ध इस्लामी शरीयत के जानकार (फुक़हा) उनके बीच मौजूद थे, उनकी दो सल्तनतें, सल्तनत ए अब्बासिया बग़दाद और सल्तनत ए उमय्या अंदालुस (स्पेन) के नाम से क़ायम हो चुकी थीं और कई सदीयों तक क़ायम रहीं, मगर उनमें से किसी ने उसे इस्लामी शरीयत के किसी हुक्म की ख़िलाफ़वरज़ी क़रार नहीं दिया, इसलिए कि इस मामले में सिरे से कोई हुक्म क़ुरआन और हदीस में मौजूद ही नहीं है। इसके विरुद्ध ये बात सभी ने कही और हम भी कहते हैं कि मुसलमानों की हुकूमत अगर किसी जगह क़ायम हो जाये तो उससे विद्रोह एक बहुत बुरा जुर्म है जिसके बारे में रसूल अल्लाह (सल्ल-अल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया है कि ऐसा करने वाले जाहिलियत की मौत मरेंगे।[1]
3. इस्लाम में राष्ट्रियता की बुनियाद “इसलाम” नहीं है, जिस तरह आमतौर पर समझा जाता है। क़ुरआन और हदीस में किसी जगह ये नहीं कहा गया है कि मुस्लमान एक क़ौम (राष्ट्र) हैं या उन्हें एक ही क़ौम होना चाहिए, बल्कि ये कहा गया है कि “मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं”[2]। क़ुरआन के अनुसार मुसलमानों के बीच रिश्ता राष्ट्रियता का नहीं, बल्कि भाईचारे का है। वो विभिन्न राष्ट्र, देश और रियासतों में बंटे होने के बावजूद ईमान के रिश्ते से एक दूसरे के भाई हैं। इसलिए उनसें ये मांग तो की जा सकती है और करनी भी चाहिए कि वो अपने भाईयों के हालात की ख़बर रखें, उनकी मुसीबतों और तकलीफों में उनके काम आएं, वो सताये हुए हों तो उनकी मदद करें, सामाजिक और आर्थिक मेलजोल में उनको तरजीह दें और उनपर अपने दरवाज़े किसी हाल में बंद ना करें, मगर ये मांग नहीं की जा सकती कि अपनी क़ौमी रियास्तों (राष्ट्र-राज्यों) और क़ौमी पहचान (राष्ट्रिय पहचान) को छोड़कर निश्चित रूप से एक ही राष्ट्र और एक ही रियासत (राज्य) बन जाएं। वो जिस तरह अपनी अलग अलग क़ौमी-रियास्तें (राष्ट्र-राज्य) क़ायम कर सकते हैं, इसी तरह दीन और शरीयत पर अमल की आज़ादी हो तो ग़ैर मुस्लिम रियासतों में नागरिक की हैसियत से और वतन की बुनियाद पर एक राष्ट्र बन कर भी रह सकते हैं। इनमें से कोई चीज़ क़ुरआन और हदीस के अनुसार नाजायज़ नहीं है।
4. दुनिया में जो लोग मुसलमान हैं, अपने मुसलमान होने का न सिर्फ दावा करते हैं बल्कि उसपर हठ भी करते हैं, मगर कोई ऐसा अक़ीदा (मान्यता) या अमल अपना लेते हैं जिसे कोई विद्वान या उलमा या दूसरे तमाम मुसलमान सही नहीं समझते, उनके इस अक़ीदे या अमल को ग़लत क़रार दिया जा सकता है, उन्हें पथभ्रष्ट और गुमराह भी कहा जा सकता है, लेकिन उसके माननेवाले चूँकि क़ुरआन और हदीस ही से दलील ले रहे होते हैं, इसलिए उन्हें ग़ैर मुस्लिम या काफ़िर घोषित नहीं किया जा सकता। इस तरह के नज़रियात और मान्यताओं के बारे में ख़ुदा का फ़ैसला क्या है? इसके लिए क़यामत का इंतिज़ार करना चाहिए। दुनिया में ऐसा मानने वाले अपने इक़रार के मुताबिक़ मुसलमान हैं, मुसलमान समझे जाएंगे और उनके साथ सारे व्यवहार उसी तरीक़े से होंगे, जिस तरह मुसलमानों की जमात (समूह) के एक शख़्स के साथ किए जाते हैं। उलमा का हक़ है कि उनकी ग़लती उनको बतायें, उन्हें सही बात को क़बूल करने की दावत दें, उनके नज़रियात एवं मान्यताओं में कोई चीज़ शिर्क है तो उसे शिर्क और कुफ़्र है तो उसे कुफ़्र कहें और लोगों को भी उसपर ख़बरदार करें, मगर उनके बारे में ये फ़ैसला कि वो मुस्लमान नहीं रहे या उन्हें मुस्लमानों की जमात से अलग कर देना चाहिए, उसका हक़ किसी को भी हासिल नहीं है। इसलिए कि ये हक़ ख़ुदा ही दे सकता था और क़ुरआन एवं हदीस से परिचित हर शख़्स जानता है कि उसने ये हक़ किसी को नहीं दिया है।
5. शिर्क (अनेकेश्वरवाद), कुफ़्र (ऐसी मान्यता जिससे इस्लाम की शिक्षाओं का इनकार हो रहा हो) और इर्तिदाद (धर्म-परिवर्तन) बेशक संगीन जुर्म हैं, लेकिन उनकी सज़ा कोई इन्सान किसी दूसरे इन्सान को नहीं दे सकता। ये ख़ुदा का हक़ (अधिकार) है। क़यामत में भी उनकी सज़ा वही देगा और दुनिया में भी, अगर कभी चाहे तो वही देता है। क़यामत का मामला इस समय बहस का विषय नहीं है। दुनिया में इसकी सूरत ये होती है कि अल्लाह ताआला जब किसी क़ौम में अपने इंसाफ को ज़ाहिर करने का फ़ैसला कर लेते हैं तो उसकी तरफ़ अपना रसूल भेजते हैं। ये रसूल उस क़ौम पर “इतमाम-ए-हुज्जत” करता है, यहां तक कि किसी के पास ख़ुदा के सामने पेश करने के लिए कोई बहाना बाक़ी नहीं रहता। इसके बाद ख़ुदा का फ़ैसला लागू होता है और जो लोग इस तरह इतमाम-ए-हुज्जत के बाद भी कुफ़्र और शिर्क पर अड़े रहते हैं, उन्हें इसी दुनिया में सज़ा दी जाती है। ये एक “सुन्नत ए इलाही” है जिसे क़ुरआन ने इस तरह बयान किया है कि “हर क़ौम के लिए एक रसूल है। फिर जब उनका रसूल आ जाता है तो उन के बीच इंसाफ के साथ फ़ैसला कर दिया जाता है और उनपर कोई ज़ुल्म नहीं किया जाता”। [3]
इसका मिजाज बिलकुल वही है जो इस्माईल (अलैहिस-सलाम) की क़ुर्बानी और “वाक़या-ए-ख़िज़र” में हमारे सामने आता है। इसका आम इन्सानों से कोई ताल्लुक़ नहीं है। हम जिस तरह किसी ग़रीब की मदद के लिए उसकी इजाज़त के बग़ैर उसकी नाव में छेद नहीं कर सकते, किसी बच्चे को माँ-बाप का नाफ़रमान देखकर उसको क़तल नहीं कर सकते, अपने किसी ख़्वाब की बुनियाद पर इबराहीम (अलैहिस-सलाम) की तरह अपने बेटे के गले पर छुरी नहीं रख सकते, इसी तरह किसी शख़्स को उसके शिर्क, कुफ़्र या इर्तिदाद की सज़ा भी नहीं दे सकते, सिवाय इसके कि “वही (आकाशवाणी)” आये और ख़ुदा अपने किसी रसूल के ज़रीये सीधे तौर पर उसका हुक्म दे। पर हर शख़्स जानता है कि रसूल अल्लाह (सल्ल अल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बाद उसका (यानि वही का) दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद हो चुका है।
6. इसमें शक नहीं कि जिहाद इसलाम का एक हुक्म है। क़ुरआन अपने मानने वालों से ये मांग करता है कि यदि उनके पास ताक़त हो तो वो ज़ुल्म और बेइंसाफ़ी के खिलाफ़ जंग करें। क़ुरआन में इसका हुक्म असल में “फ़ित्ने” को ख़त्म करने के लिए दिया गया है। “फ़ित्ने” का मतलब किसी व्यक्ति को ज़बरदस्ती उसके धर्म पर अमल करने से रोकने की कोशिश करना हैं। यही चीज़ है जिसे अंग्रेज़ी भाषा में persecution कहा जाता है। बारीक नज़र रखने वाले जानते हैं कि मुसलमानों को ये हुक्म उनकी “व्यक्तिगत क्षमता”(individual कपकिती) में नहीं, बल्कि “सामूहिक क्षमता” (collective capacity) में दिया गया है। इसकी जो आयतें क़ुरआन में आई हैं, वो “व्यक्तिगत क्षमता” में किसी से संबोधित ही नहीं हैं। लिहाज़ा इस मामले में किसी हथियारबंद आक्रमण का हक़ भी मुसलमानों के सामूहिक संगठन (राज्य) को ही हासिल है। उनके अंदर कोई शख़्स या गिरोह हरगिज़ ये हक़ नहीं रखता कि वो अपनी तरफ़ से इस तरह के किसी भी सशस्त्र आक्रमण का फ़ैसला करे। नबी (सल्ल अल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया है कि “मुसलमानों का शासक उनकी ढाल है, जंग उसी के पीछे रहकर की जाती है। [4]
7. इस्लाम जिस जिहाद का हुक्म देता है, वो ख़ुदा की राह में जंग है, इसलिए उसे नैतिक सीमाओं को नज़रअंदाज़ करके नहीं किया जा सकता। नैतिकता हर हाल में और हर चीज़ से पहले हैं और युद्ध और सश्स्त्र आक्रमण के मौक़े पर भी अल्लाह ताआला ने नैतिकता से मुंह फेरने की इजाज़त किसी शख़्स को नहीं दी। लेहाज़ा ये बिलकुल साफ है कि जिहाद सिर्फ सैनिकों (combatants) से किया जाता है। इस्लाम का क़ानून यही है कि अगर कोई ज़बान से हमला करेगा तो उसका जवाब ज़बान से दिया जाएगा, लड़ने वालों की आर्थिक मदद करेगा तो उसको मदद से रोका जाएगा, लेकिन जबतक वो हथियार उठाकर लड़ने के लिए नहीं निकलता, उसकी जान नहीं ली जा सकती। यहां तक कि मैदान-ए-जंग में भी अगर वो हथियार फेंक दे तो उसे क़ैदी बनाया जाएगा, उसके बाद उसे क़तल नहीं किया जा सकता। क़ुरआन में जिहाद का हुक्म जिस आयत में दिया गया है, उसके अलफ़ाज़ ही ये हैं कि “अल्लाह की राह में उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़ें और उसमें कोई ज़्यादती ना करो, इसलिए कि अल्लाह ज़्यादती करने वालों को पसंद नहीं करता”।[5] नबी (सल्ल अल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जंग के दौरान में औरतों और बच्चों के क़तल से मना फ़रमाया है। [6] इसकी वजह भी यही है कि वो अगर जंग करने वालों के साथ निकले भी हों तो आमतौर पर लड़ाकू (combatants) नहीं होते, ज़्यादा से ज़्यादा लड़ने वालों का हौसला बढ़ा सकते और ज़बान से उन्हें लड़ने पर उकसा सकते हैं।
8. मौजूदा दौर के पाश्चात्य (मग़रिबी) विचारकों से सदीयों पहले क़ुरआन ने ऐलान किया था कि [7] (मुस्लमानों के मामले उनके आपसी मशवरे से चलते है)। इसका साफ मतलब ये हैं कि मुसलमानों की हुकूमत उनके आपसी मशवरे से स्थापित होगी। सरकार आपसी मशवरे ही से वुजूद में आएगी । मशवरा देने में सबके अधिकार समान होंगे। जो कुछ मशवरे से बनेगा, वो मशवरे से तोड़ा भी जा सकेगा। जिस चीज़ को वुजूद में लाने के लिए मशवरा किया जाएगा, हर शख़्स की राय उसके वुजूद का हिस्सा बनेगी। आम सहमति से अगर फ़ैसला ना हो सके तो मतभेद के हल के लिए बहुमत (majority) की राय स्वीकार कर ली जाएगी। यही लोकतन्त्र है। लेहाज़ा तानाशाही किसी ख़ानदान की हो या किसी तबक़े, गिरोह या जातीय सभा की, किसी हाल में भी क़बूल नहीं की जा सकती, यहां तक कि दीनी मसलों की तफ़सीर (व्याख्या) में उलमाओं की भी नहीं । बेशक वो ये हक़ तो रखते हैं कि अपनी व्याख्या पेश करें और अपनी राय का इज़हार करें, मगर उनकी “व्याख्या” को लोगों के लिए लाज़मी तौर पर मानने वाले क़ानून की हैसियत उसी वक़्त हासिल होगी, जब जनता के चुने हुए नुमाइंदों का बहुमत उसे कुबूल कर लेगा। आधुनिक रियासत (state) में संसद नामक संस्थान इसी मक़सद के लिए क़ायम किया जाता है। रियासत के निज़ाम में आख़िरी फ़ैसला उसी का है और उसी का होना चाहिए। लोगों का अधिकार है कि संसद के फ़ैसलों की आलोचना करें और उनकी ग़लती बताने की कोशिश करते रहें, लेकिन उनकी ख़िलाफ़वरज़ी और उन से बग़ावत का अधिकार किसी को भी हासिल नहीं है। उलमा हों या रियासत की न्यायपालिका, संसद से कोई बढ़कर नहीं हो सकता। अमरुहुम शूरा बयनहुम का उसूल हर व्यक्ति और संस्थान को मजबूर करता है कि संसद के फ़ैसलों से मतभेद के बावजूद वो व्यवहार में उसे पूरे तौर से अपना लें। इस्लाम में हुकूमत क़ायम करने और उसको चलाने का यही एक जायज़ तरीक़ा है। इससे हट कर जो हुकूमत भी स्थापित की जाएगी, वो एक नाजायज़ हुकूमत होगी, चाहे उसके हुक्मरानों की पेशानी पर सज्दों के निशान हों या उसे “अमीर-उल-मोमिनीन” के लकब (उपाधि) से नवाज़ दिया जाये।
9. मुसलमानों की हुकूमत अगर किसी जगह क़ायम हो तो आमतौर पर उससे शरीयत की पाबंदी की मांग की जाती है। ये व्याख्या ठीक नहीं है, इसलिए कि इससे ये गलतफहमी पैदा होती है कि इस्लाम में हुकूमत को ये हक़ दिया गया है कि वो शरीयत के तमाम तक़ाज़ों को रियासत की ताक़त से लोगों पर नाफ़िज़ (लागू) कर दे, लेकिन क़ुरआन और हदीस में ये हक़ किसी हुकूमत के लिए भी साबित नहीं है। इस्लामी शरीयत में दो तरह के हुक्म हैं: एक, जो व्यक्ति को व्यक्ति की हैसियत से दिए गए हैं और दूसरे, जो मुसलमानों के समाज को दिए गए हैं। पहली किस्म के आदेशों का मामला ख़ुदा और बंदे के बीच है और वो उसमें किसी हुकूमत के सामने नहीं, बल्कि अपने परवरदिगार ही के सामने जवाबदेह है। लिहाज़ा दुनिया की कोई हुकूमत उसे, मिसाल के तौर पर, रोज़ा रखने या हज और उमरा के लिए जाने या खतना कराने या मूँछें छोटी रखने और वो अगर औरत है तो सीना ढांपने, शृंगार की नुमाइश ना करने या स्कार्फ़ ओढ़ कर बाहर निकलने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। इस तरह के मामलों में तालीम और समझाइश या प्रेरित करने से आगे उसका कोई अधिकार नहीं हैं, लेकिन अगर किसी का अधिकार मारा गया हो या जान, माल, इज्ज़त के ख़िलाफ़ ज़्यादती का अंदेशा हो तो इजाज़त हैं। क़ुरआन ने पूरी सफाई के साथ बता दिया है कि दीन के सकारात्मक (मुसबत) हुक्म में से वो सिर्फ़ नमाज़ और ज़कात है जिसकी मांग मुसलमानों का कोई नज़म इजतिमाई (रियासत), अगर चाहे तो क़ानून की ताक़त से कर सकता है। क़ुरआन का इरशाद है कि इसके बाद वो पाबंद है कि उनकी राह छोड़ दे और कोई चीज़ उन पर नाफ़िज़ (लागू) करने की कोशिश ना करें। [8]
रहे दूसरी किस्म के हुक्म तो वो असल में दिये ही हुकूमत को गए हैं, इसलिए कि सामूहिक रूप में वही समाज की नुमाइन्दगी करती है। उलमा और शासक वर्ग से उनपर अमल की मांग करें तो बेशक सही रास्ते पर होंगे और अपने पद के लिहाज़ से उनको ऐसा करना भी चाहिए। मगर ये शरीयत पर अमल का सिर्फ एक बुलावा है, “निफ़ाज़ ए शरीयत” का नाम इसके लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
ये दूसरी किस्म के हुक्म निम्नलिखित हैं:
a.) मुसलमान अपने शासकों के अधीन नहीं, बल्कि बराबर के नागरिक होंगे। क़ानून और रियासत की सतह पर उनके बड़े और छोटे और शरीफ़ और वज़ीअ के बीच कोई फर्क नहीं किया जाएगा। उनकी जान और माल और इज्ज़त को सम्मान हासिल होगा, यहां तक कि हुकूमत उनकी रजामंदी के बग़ैर ज़कात के इलावा कोई टैक्स भी उन पर नहीं लगा सकेगी। उनके निजी मामले, यानी निकाह, तलाक़, विरासत का विभाजन, लेन-देन और इस प्रकार के दूसरे काम में अगर उनके बीच कोई मतभेद पैदा हो जायें तो उसका फ़ैसला इस्लामी शरीयत के मुताबिक़ होगा। सुबह और शाम की नमाज़ों, माह-ए-रमज़ान के रोज़ों और हज और उमरा के लिए उन्हें तमाम ज़रूरी सहूलतें मुहया की जाएँगी। उनपर न्याय और इंसाफ के साथ और अमरुहुम शूरा बयनहुम के तरीक़े पर हुकूमत की जाएगी। उनकी लोक निधि (पब्लिक संपत्ति) सामूहिक जरूरतों के लिए ख़ास रहेंगी, उन्हें निजी स्वामित्व (मिल्कियत) में नहीं दिया जाएगा, बल्कि इस तरह इस्तेमाल की जाएगी कि जो लोग जीविका की दौड़ में पीछे रह जाएं, उनकी ज़रूरतें भी इस लोक निधि (public fund) की आमदनी से पूरी होती रहें। वो दुनिया से रुख़सत हो जाएंगे तो उनका अंतिम संस्कार मुस्लमानों के तरीक़े पर होगा, उनका जनाज़ा पढ़ा जाएगा और उन्हें मुस्लमानों के क़ब्रिस्तान में और उनके तरीक़े पर दफ़न किया जाएगा।
b.) जुमे की नमाज़ और दोनों ईद की नमाज़ का इंतिज़ाम और मुआइना हुकूमत करेगी। ये नमाज़ें सिर्फ उन्हीं स्थानों पर अदा की जाएँगी जो हुकूमत की तरफ़ से उनके लिए निश्चित कर दिए जाऐंगे। उनका मिम्बर (मस्जिद का वह ऊंचा स्थान जहां इमाम खड़ा होता है) सिर्फ शासकों के लिए होगा। वो ख़ुद उन नमाज़ों का ख़ुतबा देंगे और उन की इमामत करेंगे या उनकी तरफ़ से उनका कोई नुमाइंदा ये ज़िम्मेदारी अदा करेगा। रियासत की सीमाओं में कोई शख़्स अपने तौर पर इन नमाज़ों का इंतिज़ाम नहीं कर सकेगा।
c.) क़ानून नाफ़िज़ (लागू) करने वाले इदारे “अमर बिलमारुफ़ और नही अनिल मुनकर” के इदारे होंगे। लेहाज़ा समाज के सबसे अच्छे किरदार वाले लोगों को इन इदारों के लिए मुलाज़िम (कर्मचारी) की हैसियत से नियुक्त किए जाऐंगे। वो लोगों को भलाई का उपदेश करेंगे और उन सब चीज़ों से रोकेंगे जिन्हें इन्सान हमेशा से बुराई समझता रहा है। चुनांचे क़ानून की ताक़त उसी वक़्त इस्तिमाल करेंगे, जब कोई व्यक्ति किसी का अधिकार मारेगा या उसकी जान, माल या इज्ज़त के खिलाफ़ हमला होगा।
d.) हुकूमत अपने दुश्मनों के मामले में भी “क़ायिम बिल क़िस्त” (इनसाफ़पसंद) रहेगी। सच कहेगी, सच की गवाही देगी और सच और इंसाफ से हट कर कभी कोई काम नहीं करेगी।
e.) रियासत के अंदर या बाहर अगर किसी से कोई सम्झौता हुआ हों तो जब तक सम्झौता बाक़ी है, शब्द और अर्थ, दोनों लेहाज़ से उसकी पाबंदी पूरी ईमानदारी और पूरी अज़मत (दृढ़ता) के साथ की जाएगी।
f.) “क़तल” और “अराजकता” के सिवा मौत की सज़ा किसी जुर्म में भी नहीं दी जाएगी। अथवा रियासत का कोई मुसलमान शहरी अगर व्यभिचार (ज़िना), चोरी, क़तल, फ़साद फ़िल-अर्ज़ (अराजकता) और उपद्रव करेंगे और अदालत संतुष्ट हो जाएगी कि अपने निजी, ख़ानदानी और समाजी हालात के लिहाज़ से वो किसी रियायत के पात्र नहीं है तो उसपर वो सज़ाएं नाफ़िज़ की जाएँगी जो अल्लाह ताआला ने इस्लाम की दावत को पूरे दिल और दिमाग के साथ स्वीकार कर लेने के बाद इन जुर्मों को करने वालों के
लिए अपनी किताब में निश्चित कर दी हैं।
g.) इस्लाम के पैग़ाम को दुनिया तक पहुंचाने के लिए हुकूमत की सतह पर कोशिश की जाएगी। दुनिया की कोई ताक़त अगर उसमें रुकावट पैदा करेगी या ईमान लाने वालों को ज़बरदस्ती निशाना बनाएगी तो हुकूमत अपनी ताक़त के हिसाब से उस रुकावट को दूर करने और इस उत्पीड़न को रोकने की कोशिश करेगी, चाहे उसके लिए तलवार उठानी पड़े। [9]
10. रियासत से संबंधित ये शरीयत के आदेश हैं और इस चेतावनी और सीमाओं के साथ दिए गए हैं कि जो लोग ख़ुदा की किताब को मानकर उसमें ख़ुदा के नाज़िल किए क़ानून के अनुसार फ़ैसले नहीं करते, क़यामत के दिन वो उसके (ख़ुदा के) सामने ज़ालिम, फ़ासिक़ और काफ़िर क़रार पाएँगे। [10] लेहाज़ा मुसलमानों के शासक अगर इसके बावजूद इस मामले में लापरवाही करते हैं या सरकशी (अवज्ञा पर अड़ जाना) करते हैं तो उलमा की ज़िम्मेदारी इसके सिवा कुछ नहीं कि वो उन्हें दुनिया और आख़िरत में इसके नतीजों से ख़बरदार करें। उन्हें हिकमत के साथ और अच्छे लहजे में सही रवैया अपनाने की दावत दें, उनके सवालों का सामना करें, उनके शक दूर करें और दलाइल के साथ उन्हें बताएं कि अल्लाह ताआला ने अपनी शरीयत क्यों दी है? रियासत के साथ उस का क्या रिश्ता है? इसमें जो हुक्म हैं उनकी बुनियाद क्या है और मौजूदा दौर का इन्सान उसको समझने में दिक़्क़त क्यों महसूस करता है? इसकी व्याख्या के लिए ऐसी शैली अपनाएँ जिनसे उसकी हिकमत और उसके उद्देश्य उनपर स्पष्ट हों और उनके दिल और दिमाग़ पूरे इत्मीनान के साथ उसे कुबूल करने और उसपर अमल करने के लिए तैयार हो जाएं। क़ुरआन में उनका दर्जा दावत और खबरदार करने वाला बताया गया है। वो अपनी क़ौम और उसके शासकों के लिए दारोगा नहीं बनाए गए कि अपने माननेवालों के जत्थे संगठित करके बंदूक़ के दम पर उन्हें शरीयत का पाबंद बनाने की कोशिश करें।
1. सहीह बुख़ारी हदीस नंबर 3507, 4507
2. सूरह अल-हुजुरात 49:10
3. सूरह यूनुस 10:47
4. सहीह बुख़ारी, हदीस नंबर 2957
5. सूरह अल बक़राह 2:190
6. सहीह बुख़ारी, हदीस नंबर 3015; सहीह मुस्लिम, हदीस नंबर 1744
7. सूरह अल शूरा 42: 38
8. सूरह अल तौबा 9:5
9. “इसलाम के मूलग्रंथों” में इन हुक्मों के दलाइल के लिए देखिए हमारी किताब मीज़ान
10. सूरह अल माइदाह 5: 44-47