कुछ लोगों का मानना है कि सूद (ब्याज़) आधारित योजनाओं में पैसा लगाया जाना चाहिए ताकि कमाये गए सूद से जन-कल्याण परियोजनाओं (public welfare schemes) में निवेश (invest) किया जा सके और जरूरतमंद लोगों की मदद की जा सके।
यहाँ यह बात साफ़ कर लेनी चाहिए कि सूद लेना इस्लाम में पूरी तरह मना है चाहे वह किसी नेक काम के लिए ही क्यों ना लिया जाए। इस्लाम में ज़रूरी है कि मकसद के साथ-साथ उसे हासिल करने का ज़रिया भी नैतिक (अख़लाकि) रूप से उचित हो। यहाँ भले काम के लिए बुरे रास्ते अपनाने की ‘रॉबिन हुड' अवधारणा (तसव्वुर) को नहीं अपनाया जा सकता। इस्लाम का मकसद इंसान के विचार, उसकी अवधारणाओं और कर्मों (अमल) को हर तरह की बुराई से शुद्ध (पाक) करना है। इसका संदेश है कि सही रास्ते, सही दिशा में कोशिश की जाए चाहे मकसद हासिल हो या ना हो – क्योंकि मकसद का हासिल होना इंसान की कोशिश पर नहीं बल्कि अल्लाह की मर्ज़ी पर निर्भर है। अगर हमारे पास सही ज़रिये ना हो तो उन हालात में हम पर फ़र्ज़ भी नहीं कि हम लोगों की भलाई पर खर्च करें।
कुरआन का एक उदाहरण[1] हमारे लिए यह बात और साफ़ कर देता है:
अरब में इस्लाम से पहले जुए और शराब के ज़रिये से अमीर लोग अपनी दरियादिली एवं उदारता दिखाया करते और गरीबों, ज़रुरतमंदों की मदद किया करते थे। सर्दियों में जब ठंडी हवा चलती थी और सूखे जैसे हालात हो जाया करते थे तब दरियादिल लोग इकट्ठा होते और शराब पिया करते, और मदहोशी की हालत में जो ऊंट उनके हाथ लगता उसे मार गिराते, ऊंट के मालिक को मुहँमांगी कीमत अदा कर उस ऊंट के माँस पर जुआ खेलते थे। माँस का जो भी हिस्सा खेलने वाला जीतता वह उसे खुले दिल से ऐसे मौकों पर वहाँ जमा हो जाने वाले गरीबों में बाँट दिया करता था। इस्लाम-पूर्व अरब में यह एक बड़े सम्मान की बात थी और इसमें शामिल होने वाले लोगों को गरीबों का हमदर्द और उदार माना जाता था। शायर उनकी शान में कसीदे पढ़ा करते थे। दूसरी तरफ, जो लोग इस गतिविधि में शामिल नहीं हुआ करते थे उन्हें कंजूस समझा जाता था। जुए और शराब के इसी फायदे की वजह से लोगों ने इनके हराम करार दिए जाने पर सवाल उठाया था। जवाब में कुरआन ने ज़ोर देकर कहा है कि इस भलाई के बावजूद इनकी वजह से इंसान में नैतिक दुराचरण (अख़लाकि बुराइयाँ) पैदा होता है, जिसे किसी भी हालत में स्वीकार नहीं किया जा सकता:
يَسْأَلُونَكَ عَنِ الْخَمْرِ وَالْمَيْسِرِ ۖ قُلْ فِيهِمَا إِثْمٌ كَبِيرٌ وَمَنَافِعُ لِلنَّاسِ وَإِثْمُهُمَا أَكْبَرُ مِن نَّفْعِهِمَا
٢١٩:٢
लोग तुमसे जुए और शराब के बारे में पूछते हैं, कह दो कि इन दोनों का गुनाह बहुत बड़ा है और लोगों के लिए इनमें कुछ फायदे भी हैं, लेकिन इनका गुनाह इनके फायदों से कहीं बढ़कर है। (2:219)
दूसरे शब्दों में कहें तो कुछ फायदे होने के बावजूद शराब और जुए को नैतिक दुराचरण के कारण हराम किया गया। इसी तरह सूद पर आधारित परियोजनाओं में भी पैसे नहीं लगाये जा सकते चाहे मकसद उस कमाई को नेक कामों पर खर्च करना ही क्यों ना हो।
–शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद
[1]. देखें: अमीन अहसन इस्लाही, तदब्बुर-ए-कुरआन, भाग 1, 505।