लेखक: शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद
आमतौर निम्नलिखित आयत की बुनियाद पर यह दलील दी जाती है कि एक मुसलमान रियासत के हुक्मरान को यह हक़ हासिल है कि अगर वह चाहे तो बहुमत के फैसले को रद्द करके उसके उलट अपना हुक्म लागू सकता है:
فَاعْفُ عَنْهُمْ وَاسْتَغْفِرْ لَهُمْ وَشَاوِرْهُمْ فِي الْأَمْرِ فَإِذَا عَزَمْتَ فَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُتَوَكِّلِينَ
[٣: ١٥٩]
इसलिए इनसे दरगुज़र करो और इनके लिए मग़फिरत चाहो और मामलों में [राज्य संबंधित] इनसे सलाह लेते रहो । फिर जब फैसला कर लो तो अल्लाह पर भरोसा करो। (3:159)
यह तर्क सही नहीं है। यह समझना चाहिए कि कुरआन का एक नज़्म (समन्वय) है और हर आयत का अपना संदर्भ (पसमंज़र) है, जिसको अगर ध्यान में ना रखा जाये तो किसी भी आयत का अर्थ निकालने में बड़ी गलती हो सकती है।
अगर इस आयत 3:159,[1] का संदर्भ देखें तो यह साफ हो जाता है कि यह आयत उन आयात का हिस्सा है जिनमें मुनाफिकों (पाखंडियो) के व्यवहार, उहद की जंग और उसके नतीजे पर चर्चा हो रही है। कुरआन से यह मालूम होता है कि मुनाफिकों को सुधरने का वक़्त दिया गया पर जब यह मोहलत खत्म हो गई तब उनसे सख्ती से निपटा गया। कुरआन की बहुत सी आयात है जिनसे यह साफ़ हो जाता है जैसे की:
[يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ جَاهِدِ الْكُفَّارَ وَالْمُنَافِقِينَ وَاغْلُظْ عَلَيْهِمْ وَمَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ [٦٦: ٩
ऐ पैगंबर, काफिरों (इनकार करने वालों) और मुनाफिकों सब से जिहाद करो और इन पर सख्त हो जाओ, और उनका ठिकाना नरक है और वह बुरा ठिकाना है। (66:9)
उहद की जंग वह वक़्त था जब मुनाफिकों को मोहलत मिली हुई थी। इसलिए यह ठीक नहीं था कि उस वक़्त उन्हें नज़रअंदाज किया जाये या उनकी उपेक्षा की जाये। नतीजतन, पैगंम्बर (स.व) को कहा गया था कि उनसे भी मामलों में राय लेते रहें, लेकिन, पैगंबर (स.व) के लिए यह ज़रूरी नहीं था कि वह उनकी बहुमत से हुए हर फैसले को मानें। अगर पैगंबर (स.व) उनकी राय के अलग कोई फैसला करते हैं तो फिर उन्हें अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए और वही करना चाहिए जो फैसला वह कर चुके हैं।
आयत में जिस बात पर ज़ोर दिया गया उसका संक्षिप्त (मुख्तसर) खुलासा:
आयत 3:159 के संदर्भ (पसमंज़र) और ऐतिहासिक तथ्यों पर गौर करने से यह पता चलता है कि पैगंबर (स.व) ने मुसलमानों से इस मामले पर विचार-विमर्श किया कि जंग शहर के अंदर लड़ें या बाहर निकल कर लड़ना चाहिए। मुनाफिकों की राय थी के अंदर से ही लड़ना ठीक रहेगा वहीं सच्चे ईमान वालों की राय इसके विपरीत थी। मालूम पड़ता है कि पैगंबर (स.व) भी यही चाहते थे कि शहर से बाहर निकल कर लड़ा जाए। जब पैगंबर (स.व) और बाकी ईमान वालों ने यह फैसला कर लिया कि बाहर निकल कर ही जंग की जाएगी तो मुनाफिकों में गुस्से की लहर दौड़ गयी और इसका इज़हार उन्होंने अलग-अलग तरीकों से किया। उदाहरण के तौर पर अब्दुल्लाह इब्न उबई जंग से ठीक पहले अपने तीन सौ आदमियों के साथ यह कह कर लौट गया कि उसकी राय को नज़रंदाज़ किया गया है। जंग के बाद मुनाफिकों के एक गिरोह, जो मुसलमानों के साथ था, ने कहना शुरू कर दिया कि गलत रणनीति की वजह से हार हुई है। नतीजातन, आयात 3:156-158, मुनाफिकों को संबोधित करते हुए इस तरह पूरा मामला रखती हैं:
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَكُونُوا كَالَّذِينَ كَفَرُوا وَقَالُوا لِإِخْوَانِهِمْ إِذَا ضَرَبُوا فِي الْأَرْضِ أَوْ كَانُوا غُزًّى لَّوْ كَانُوا عِندَنَا مَا مَاتُوا وَمَا قُتِلُوا لِيَجْعَلَ اللَّهُ ذَٰلِكَ حَسْرَةً فِي قُلُوبِهِمْ وَاللَّهُ يُحْيِي وَيُمِيتُ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ وَلَئِن قُتِلْتُمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ أَوْ مُتُّمْ لَمَغْفِرَةٌ مِّنَ اللَّهِ وَرَحْمَةٌ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُونَ وَلَئِن مُّتُّمْ أَوْ قُتِلْتُمْ لَإِلَى اللَّهِ تُحْشَرُونَ
[٣: ١٥٦-١٥٨]ईमान वालों, उन लोगों की तरह ना हो जाओ जो मुनकिर हैं। वह अपने भाइयों के बारे में कहते हैं, जब वह सफ़र या जंग में निकलते हैं [और उनको मौत आ जाती है], कि अगर वह हमारे पास रहते तो ना मरते और ना कत्ल होते। यह इसलिए कि अल्लाह इस चीज़ को उनके दिलों की हसरत बना दे। [वरना हकीकत यह है कि] अल्लाह ही ज़िन्दगी देता है और अल्लाह ही जान लेता है, और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसको देख रहा है। और अगर तुम अल्लाह की राह में मारे जाओगे या मरोगे तो अल्लाह की माफ़ी और रहमत जो तुम्हें हासिल होगी वह उससे कहीं बेहतर है जो यह जमा कर रहे हैं। और तुम मरो या मारे जाओ , हर हाल में तुम अल्लाह ही के पास जमा किए जाओगे। (3:156-158)
इन आयात से यह साफ़ हो जाता है कि मुहम्मद (स.व) को रसूल की हैसियत से यह बताया गया था कि इस वक़्त इन मुनाफिकों के साथ किस तरह का व्यवहार करना है। इनसे अगली आयत में भी मुनाफिकों का ही ज़िक्र है:
فَاعْفُ عَنْهُمْ وَاسْتَغْفِرْ لَهُمْ وَشَاوِرْهُمْ فِي الْأَمْرِ فَإِذَا عَزَمْتَ فَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُتَوَكِّلِينَ
[٣: ١٥٩]
इसलिए इनसे दरगुज़र करो और इनके लिए मग़फिरत चाहो और मामलों में [राज्य संबंधित] इनसे सलाह लेते रहो । फिर जब फैसला कर लो तो अल्लाह पर भरोसा करो। (3:159)
इन आयात में आज के दौर से संबंधित कोई निर्देश नहीं है। एक रसूल के तौर पर मुहम्मद (स.व) को अल्लाह की तरफ से बताया जा रहा है कि मुनाफिकों को तब तक ढील देनी है जब तक अल्लाह की तरफ से उन्हें दी हुई मोहलत ख़त्म नहीं हो जाती। इसलिए इस आयत को मुहम्मद (स.व) के अलावा किसी और पर लागू नहीं किया जा सकता।
[1]. देखें: अमीन अहसन इस्लाही, तदब्बुर-ए-कुरआन, भाग. 2, 208-210।