काफी लोग मानते हैं कि नज़र और मन्नत माँगना इस्लाम में एक पसंद किया जाने वाला काम है। मिसाल के तौर पर अल्लाह से अहद (प्रण) करना कि मुराद पूरी होने पर हम एक तय संख्या में रोज़े (उपवास) रखेंगे या एक तय संख्या में नफ्ल (स्वैच्छिक) नमाज़ अदा करेंगे।
यहाँ यह बात जान लेना ज़रूरी है कि रसूलअल्लाह (स.व) और उनके साथियों (रज़ि.) का यह तरीका कभी नहीं रहा कि इस तरह से नज़र या मन्नतें मांगी जाएँ। इसका मतलब तो यह हुआ कि एक इंसान इबादत करने के लिए, एक धार्मिक कर्म के निर्वाह के लिए शर्तें रख रहा है, और अपने ऊपर भी ऐसे काम का बोझ खुद ही ले रहा है जो शायद उसे बाद में पूरा करना भी मुश्किल हो जाये। इंसान का अपने रब से जो संबंध है, इस तरह की इबादत उस संबंध के लिए भी ठीक नहीं है। एक तरह से देखें तो इसमें इबादत का जज़्बा ना होकर व्यापार और सोदे का जज़्बा नज़र आता है। इबादत तो दिल से, और रूह की आवाज़ पर की जानी चाहिए वरना इसका कोई फायदा नहीं, अपने अंतर-मन की शुद्धि (तज़किया-ए-नफ्स) ही इबादत का असल मकसद है। असल में तो कई बार मन की मुराद पूरी ना होने के बाद भी सही जज़्बे से की गयी इबादत इस मकसद को हासिल करने में कही अधिक फायदेमंद हो सकती है।
इस मामले में सही तरीका यह है कि इंसान अपनी इच्छाओं के लिए अपने रब से दुआ करे, और अगर दुआ सुन ली जाये तो सच्चे दिल से अपने रब का शुक्र करे, और उस वक़्त उसके जज़्बात जिस तरह इबादत की शक्ल लेना चाहें वह लेने दे। इसके अलावा ऐसे मामलों में इबादत कितनी की गयी यह नहीं बल्कि किस जज़्बे से की गयी यह ज़्यादा मायने रखता है।
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद