निम्नलिखित हदीस की बुनियाद पर कुछ विद्वानों (आलिमों) का मानना है कि मुसलमानों और गैर-मुसलमानों में विरासत का कोई संबंध नहीं हो सकता:[1]
उसामा इब्न ज़ैद से रवायत हैं कि रसूलअल्लाह (स.व) ने फरमाया: “एक मुसलमान किसी काफ़िर का वारिस नहीं हो सकता और ना ही कोई काफ़िर किसी मुसलमान का वारिस हो सकता है।”[2]
आज के दौर में जब दुनिया भर में लोग धर्म बदल कर इस्लाम अपना रहे हैं ऐसे में यह मुद्दा और भी प्रासंगिक हो गया है। धर्म परिवर्तन के मामले में एक परिवार ऐसे हालात में आ जाता है जब कोई एक सदस्य इस्लाम अपना लेता है और विरासत को लेकर सवाल खड़ा हो जाता है।
किसी हदीस को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि कुरआन की रौशनी में उसको देखा जाये और कुरआन में उस बारे में जो बुनियाद है उससे से जोड़ कर ही हदीस से कोई मतलब निकाला जाये क्योंकि हदीस से स्वतंत्र रूप से यानी सिर्फ हदीस की बुनियाद पर कोई कानून नहीं लिया जा सकता, उसको कुरआन और सुन्नत की रौशनी में देखने के बाद ही उसको सही तरह समझा जा सकता है। कुरआन ने अल्लाह के खास कानून का उल्लेख किया है जिसके अनुसार अल्लाह के रसूलों का जानते-बुझते हुए इनकार करने वाले लोगों को विभिन्न दंड (सज़ाएँ) दिए जाते हैं और थोड़े विश्लेषण से यह बात साफ हो जाती है कि यह हदीस भी इसी खास कानून से संबंधित है और यह कानून सब के लिए नहीं है। हदीस में अल्-काफ़िर के साथ आये शब्द अलिफ़-लाम (आर्टिकल:अल्) इस बात के सूचक हैं कि यह रसूलअल्लाह (स.व) के समय के काफिरों के संबंध में हैं जिन्होंने सच को जानते-बुझते ठुकराया था।[3] इस बात को ध्यान में रखते हुए सही अनुवाद “ऐसे काफ़िर” होना चाहिए।
कुरआन (4:11), में विरासत की बुनियाद रिश्तों का आपसी लाभ (मनफाअत) है। अगर रिश्तों का यह आपसी लाभ समाप्त हो जाता है तो विरासत का संबंध भी समाप्त हो जाता है। क़ुरैश और अहले किताब (इसाई और यहूदी) द्वारा सच का जानते-बुझते इनकार करने के बाद मुसलमानों और उनके बीच रिश्तेदारी का लाभ भी समाप्त हो गया था इसलिए वह एक दूसरे के वारिस भी नहीं हो सकते थे।
दूसरे शब्दों में कहा जाये तो यह हुक्म सिर्फ उन लोगों के लिए था जिन्होंने जानते-बुझते मुहम्मद (स.व) को अल्लाह का रसूल मानने से इनकार कर दिया था और बाद के गैर-मुसलमानों से इस हुक्म का कोई संबंध नहीं है।
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद