✍?डॉ. ख़ालिद ज़हीर
विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच संवाद वर्तमान समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। फिर भी संवाद की अपेक्षाकृत कुछ-ही पहल मुसलमानों के द्वारा शुरू की गई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आम तौर पर मुसलमान धार्मिक मामलों में ग़ैर-मुस्लिमों के साथ दूरियाँ ख़त्म करने में विश्वास नहीं रखते हैं। वे उन्हें मुसलमान बनाने में विश्वास रखते हैं और उनके अंदर दूसरे धर्म के मानने वालों से श्रेष्ठ होने का एक गहरा एहसास है।इसलिए आमतौर पर वो दूरियाँ ख़त्म करने के किसी भी संवाद में शामिल होना पसंद नहीं करते हैं।
कई पारम्परिक उलमा और धार्मिक विद्वानों को ग़ैर-मुस्लिमों के साथ संवाद समाधान नहीं लगता। इनमें से कुछ या तो जिहाद के द्वारा ग़ैर-मुस्लिम देशों को जीत कर समस्या के समाधान या उपदेश के द्वारा धर्म परिवर्तन में विश्वास रखते हैं। हालांकि वे इस बात से सहमत हैं कि किसी को भी इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।
हक़ीक़त यह है कि हमारे उलमा ग़ैर-मुस्लिमों के समीप आने के लिए बातचीत पर प्राथमिकता के रूप में विचार नहीं करते। इसके अतिरिक्त हमारे कुछ ही उलेमा ग़ैर मुस्लिमों के साथ सामाजिक सम्पर्क रखते हैं और इनमें से कुछ ही और शायद ही कोई उनके धर्म के बारे में जानने की इच्छा रखता हो ताकि वह सहानुभूतिपूर्वक उनके विचारों को समझ सकें। अफ़सोस की बात यह है कि श्रेष्ठ होने का एहसास दूसरों को कमतर बताता है, और यही मुसलमानों में ग़ैर मुस्लिमों के क़रीब आने में उत्साह की कमी का सबसे महत्वपूर्ण कारक है।
इस सम्बन्ध में मैं दूसरों के बारे में आम मुसलमानों की पारम्परिक धारणा परिवर्तन के लिए कुछ सुझाव देना चाहता हूँ। सबसे पहले, क़ुरआन की आयतों और हदीसों का वास्तविक अध्ययन ग़ैर-मुस्लिमों के प्रति वास्तविक सम्मान पैदा करने में मदद करेगा और ऐसी कई आयतें और हदीसें हैं जिनमें दूसरे धर्म के मानने वालों का सम्मान करने पर बल दिया गया है। इसके साथ ही युग विशेष और विशेष प्रकृति वाली क़ुरआन की आयतों और हदीसों की व्याख्या की ईमानदाराना कोशिश की जानी चाहिए जो हो सकता है कि ये धारणा पैदा करती हों कि ग़ैर-मुस्लिम सम्मान के योग्य नहीं हैं और मदरसों में जहाँ उलमा प्रशिक्षण हासिल करते हैं वहाँ दूसरे धर्मों की शिक्षाएं भी दी जानी चाहिए ताकि ग़ैर-मुस्लिमों के प्रति मिलनसार रवैया छात्रों में पैदा हो सके। इसके अलावा एक और क़दम जो ग़ैर-मुस्लिमों के साथ आपसी सम्बन्ध पैदा करने में मददगार होगा वह यह है कि ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों को मदरसों में उनके अपने धर्म पर आधारित पाठ्यक्रम को पढ़ाने के लिए आमंत्रित करें।
संवाद के नाम पर कुछ मुस्लिम समूह दूसरे धर्मों का खण्डन और उनकी आलोचना करते हैं और उनके धार्मिक ग्रंथों और विश्वास में त्रुटियाँ निकालने की कोशिश करते हैं। कुछ लोग दूसरे धर्मों को निम्नतर बताते हैं और उनका मज़ाक उड़ाते हैं। वो इसे संवाद के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य के रूप में देखते हैं। प्रश्न यह उठता है कि क्या यह संवाद की भावना से सुसंगत है? क्या इसे किसी भी तरह संवाद कहा जा सकता है या यह केवल अंतर-धार्मिक वाद-विवाद है?
मेरी राय में संवाद का उद्देश्य तर्कों के साथ अपने विचारों को सकारात्मक तरीके से प्रस्तुत करना और दूसरों के द्वारा उठाये गये प्रश्नों और आलोचनाओं के उत्तर में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करना होना चाहिए। कोई धर्म बेहतर है या नहीं इसका फ़ैसला लोगों पर छोड़ दिया जाना चाहिए ताकि वे प्रस्तुति से अनुमान लगा सकें। दूसरों के विचारों को सीधे तौर पर निशाना बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है। और मुझे लगता है कि क़ुरआन की यह आयत भी यही अपेक्षा करती है, ”अपने रब के मार्ग की ओर तत्वदर्शिता और सदुपदेश के साथ बुलाओ और उनसे ऐसे ढंग से वाद विवाद करो जो उत्तम हो।” (16: 125)
मुझे लगता है कि किसी के विश्वास के बारे में दूसरे धर्मों के मानने वालों के द्वारा उठाये गये प्रश्नों को स्पष्ट करना स्वाभाविक है। हालांकि इसे सभ्य और अकादमिक तरीके से किये जाने की ज़रूरत है। अगर मतभेदों पर आकादमिक तरीके से चर्चा नहीं की जाती है तो वास्तव में दूसरे धर्मों के मानने वालों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इससे वो अपमानित महसूस करेंगे और उनका ऐसा महसूस करना उचित है। किसी धर्म के अपमानजनक खण्डन से इस बात की संभावना बहुत कम है कि कोई उस व्यक्ति के विचारों के क़रीब आये जो उसके धर्म का खण्डन कर रहा है। सही मायने में इस तरह के संवाद मुसलमानों और दूसरे धर्म के मानने वालों के बीच बेहतर सम्बन्ध को बढ़ावा देने में सहायता नहीं करते।
अंतर-विश्वास या अंतर-धार्मिक संवाद के क्षेत्र में ही मुसलमान आमतौर पर काफ़ी निष्क्रिय नहीं हैं बल्कि मुसलमानों के ही बीच विभिन्न पंथों और विभिन्न विचारधाराओं के बीच संवाद को बढ़ावा देने के लिए शायद ही कोई प्रयास होता है, जबकि क़ुरआन ख़ुद मुसलमानों के बीच एकता पर ज़ोर देता है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि भले ही क़ुरआन मुसलमानों के बीच सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली किताब है लेकिन फिर भी उस तरह नहीं पढ़ी जा रही है जो इसे परम धार्मिक अधिकार वाली किताब का दर्जा देती हो। विद्वानों के साम्प्रदायिक साहित्य और हदीस जो उनके या किसी दूसरे सम्प्रदाय के विचारों का समर्थन करती हो उसे परम्परागत मुसलमानों के व्यवहारिक जीवन में क़ुरआन से भी ऊँचा दर्जा प्राप्त है।
ऐसे परिस्थितियां इसलिए उत्पन्न हुई, क्योंकि मुसलमानों का मानना है कि क़ुरआन को सीधे समझना बहुत कठिन है, इसलिए इसे समझने के लिए उन्हें अपने विद्वानों और हदीसों से मदद लेने की ज़रूरत है। जब तक मुस्लिम विद्वान और बुद्धिमान आम लोग यह फ़ैसला नहीं कर लेते कि सभी धार्मिक मामलों में क़ुरआन ही उनके लिए अंतिम कसौटी है, तब तक मुसलमान के लिए अपने साथी मुसलमानों और ग़ैर मुस्लिमों से सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव नहीं हो सकता।
ऐसा वर्तमान हालात में कहा जाता है जब इस्लाम और मुसलमान दुष्टों के रूप में पेश किये जाते हैं क्योंकि अक्सर ग़लत तरीके से इस्लाम के नाम पर होने वाली हिंसा में मुसलमान और दूसरे शामिल होते हैं और यह बहुत ख़ुशी की बात है कि कुछ मुसलमानों संवाद की ज़रूरत के प्रति अधिक जागरूक हो गये हैं। मुझे लगता है कि ये मुसलमानों के जागने और अपनी धार्मिक सोच में सुधार की प्रक्रिया से गुज़रने के लिए उपयुक्त समय है।
मैं इस समय मुस्लिम बुद्धिजीवियों में तीन रुझान देख सकता हूँ: धर्म से दूर होने का चिंताजनक आन्दोलन, धार्मिक अतिवाद के प्रति चिंताजनक प्रवृत्ति और इस्लाम को सही तरीके से समझने की ज़रूरत। तीसरी प्रवृत्ति तभी प्रभावशाली हो सकती है जब मुस्लिम बुद्धिजीवी कुछ विद्वानों के द्वारा किये जा रहे प्रयासों को अपना पूरा समर्थन दें, जो मुसलमानों को क़ुरआन की रौशनी में इस्लाम को समझने की दावत दे रहे हैं।