मुसलमानों में आमतौर पर यह माना जाता है कि अस्र की नमाज़ के बाद मग़रिब तक नमाज़ पढ़ना या सजदा करना मना है।
यहाँ यह बात साफ़ कर लेनी चाहिए कि रसूलअल्लाह (स.व) की सुन्नत के मुताबिक जिन वक्तों में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती वह सिर्फ सूरज के निकलने (सूर्योदय) और उसके डूबने (सूर्यास्त) का वक़्त है। यह रोक शिर्क (बहुदेववाद) पर लगाम कसने के लिए एहतियात के तौर पर लगाई गई है, क्योंकि पिछले ज़मानों में बहुत सी कौमें इन्हीं वक्तों में सूरज की इबादत किया करती थीं। इन दोनों वक्तों को छोड़कर किसी भी वक्त इबादत की जा सकती है। इसलिए, अस्र और मग़रिब के बीच में भी नमाज़ पढ़ी जा सकती है।
अस्र और मग़रिब के बीच में नमाज़ और सजदे पर पाबंदी की बुनियाद निम्नलिखित हदीस दिखाई पड़ती है:
अबू सईद अल्-खुदरी से रवायत है कि उन्होंने रसूलअल्लाह (स.व) को कहते हुए सुना : “भोर के बाद सूरज निकलने तक कोई नमाज़ नहीं और अस्र के बाद सूरज डूबने तक कोई नमाज़ नहीं।”[1]
अगर इस हदीस से जुड़ी सारी ख़बरों को इकट्ठा किया जाये तो यह बात सामने आती है कि इसका एक हिस्सा ज़्यादातर जगहों पर छूट गया है।
निम्नलिखित दो हदीसों के रेखांकित भाग में यह देखा जा सकता है:
अली (रज़ि.) रसूलअल्लाह (स.व) से रवायत करते हैं कि: “अस्र के बाद नमाज़ ना पढ़ो सिवाय इसके कि सूरज [आसमान में] ऊंचाई पर हो ।”[2]
अली (रज़ि) रवायत करते हैं कि रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया: “अस्र के बाद नमाज़ ना पढ़ो सिवाय इसके कि सूरज [आसमान में] ऊँचाई पर तेज़ी से चमक रहा हो ।”[3]
दूसरे शब्दों में कहें तो रसूलअल्लाह (स.व) ने असल में इस चीज़ से रोका है कि सूरज डूबने के बिलकुल आस-पास के वक़्त में इबादत की जाये, क्योंकि इसमें यह गलती हो सकती है कि इंसान सूरज डूबने के वक़्त में नमाज़ पढ़ ले। इन हदीसों से यह साफ़ हो जाता है कि अगर कोई अस्र के बाद इबादत करना चाहता है तो वह इसको सूरज डूबने के वक़्त से पहले ही कर ले। अस्र के बाद नमाज़ पढ़ने पर ऐसी कोई रोक नहीं लगाई गई है जैसा कि कुछ लोगों ने समझा है।