लेखक: जावेद अहमद ग़ामिदी
अनुवाद: मुश्फ़िक़ सुल्तान
إِنَّا أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ كَمَا أَوْحَيْنَا إِلَىٰ نُوحٍ وَالنَّبِيِّينَ مِن بَعْدِهِ ۚ وَأَوْحَيْنَا إِلَىٰ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَعِيسَىٰ وَأَيُّوبَ وَيُونُسَ وَهَارُونَ وَسُلَيْمَانَ ۚ وَآتَيْنَا دَاوُودَ زَبُورًا ﴿١٦٣﴾ وَرُسُلًا قَدْ قَصَصْنَاهُمْ عَلَيْكَ مِن قَبْلُ وَرُسُلًا لَّمْ نَقْصُصْهُمْ عَلَيْكَ ۚ وَكَلَّمَ اللَّـهُ مُوسَىٰ تَكْلِيمًا ﴿١٦٤﴾ رُّسُلًا مُّبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَى اللَّـهِ حُجَّةٌ بَعْدَ الرُّسُلِ ۚ وَكَانَ اللَّـهُ عَزِيزًا حَكِيمًا
हमने तुम्हारी ओर उसी प्रकार वही (प्रेरणा) की है जिस प्रकार नूह और उसके बाद के नबियों की ओर वही की। और हमने इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़ और याक़ूब और उसकी सन्तान और ईसा और अय्यूब और यूनुस और हारून और सुलैमान की ओर भी वही (प्रेरणा) की। और हमने दाउद को ज़बूर प्रदान किया। और कितने ही रसूल हुए जिनका वृतान्त पहले हम तुमसे बयान कर चुके है और कितने ही ऐसे रसूल हुए जिनका वृतान्त हमने तुमसे बयान नहीं किया। और मूसा से अल्लाह ने बातचीत की, जिस प्रकार बातचीत की जाती है। रसूल शुभ समाचार देनेवाले और सचेत करनेवाले बनाकर भेजे गए है, ताकि रसूलों के पश्चात लोगों के पास अल्लाह के मुक़ाबले में (अपने निर्दोष होने का) कोई तर्क न रहे। अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है। [सूरह निसा 4, आयत 163-165]
अल्लाह त'आला ने जिन व्यक्तियों के माध्यम से मानवता के मार्गदर्शन की व्यवस्था की, उन्हें नबी कहा जाता है। वह स्वयं मनुष्य ही थे, लेकिन अल्लाह त'आला ने अपने इल्म (ज्ञान) और हिकमत (तत्वदर्शिता) के आधार पर उन्हें इस पद के लिए चुन लिया। इसे एक ईश्वरीय-अनुदान समझना चाहिए, इस पद को अपने प्रयास और प्रशिक्षण से प्राप्त नहीं किया जा सकता।[1]
हज़रत मूसा (अ.स) को नबूव्वत (पैगम्बरी) मिलने की घटना का वर्णन कुरआन में हुआ है। वे 'मद्यन' के इलाके से वापसी पर अपने बीवी बच्चों के साथ 'सीना' की घाटी में पहुंचे तो रात का समय था। रास्ते का भी कुछ अंदाज़ा नहीं हो रहा था और काफी सर्दी भी थी। इतने में एक ओर से शोला सा लपकता हुआ दिखाई दिया। श्री मूसा के सिवा उस को शायद किसी ने देखा भी नहीं। उनहों ने घर वालों से कहा की तुम लोग यहाँ ठहरो, मुझे एक शोला सा दिखाई दिया है। मैं वहाँ जाता हूँ, गर्मी के लिए कुछ आग ले आऊँ गा या वहाँ कुछ लोग हुए तो उन से आगे का रास्ता पता कर लूँ गा। यह कहकर वे उस जगह पहुंचे तो आवाज़ आई कि हे मूसा, मैं तुम्हारा प्रभु हूँ, इस लिए जूते उतार दो। तुम इस समय, तुवा की पवित्र घाटी में हो। मैंने तुम्हें नबूव्वत (पैगम्बरी) के दायित्व के लिए चुन लिया है। अतः जो 'वही' (संदेश) तुम को दी जा रही है, उसकोध्यान से सुनो। पवित्र कुरआन ने बताया है कि इसके बाद उन्हें वही ज्ञान दिया गया जो उनसे पूर्व सारे नबियों (पैगंबरों) को दिया गया है।
إِنَّنِي أَنَا اللَّـهُ لَا إِلَـٰهَ إِلَّا أَنَا فَاعْبُدْنِي وَأَقِمِ الصَّلَاةَ لِذِكْرِي ﴿١٤﴾ إِنَّ السَّاعَةَ آتِيَةٌ أَكَادُ أُخْفِيهَا لِتُجْزَىٰ كُلُّ نَفْسٍ بِمَا تَسْعَىٰ ﴿١٥﴾ فَلَا يَصُدَّنَّكَ عَنْهَا مَن لَّا يُؤْمِنُ بِهَا وَاتَّبَعَ هَوَاهُ فَتَرْدَىٰ
अनुवाद: निस्संदेह मैं ही अल्लाह हूँ। मेरे सिवा कोई पूज्य-प्रभु नहीं। अतः तू मेरी बन्दगी कर और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ायम कर। निश्चय ही वह (क़ियामत की) घड़ी आनेवाली है – शीघ्र ही उसे लाऊँगा, उसे छिपाए रखता हूँ – ताकि प्रत्येक व्यक्ति जो प्रयास वह करता है, उसका बदला पाए। अतः जो कोई उसपर ईमान नहीं लाता और अपनी वासना के पीछे पड़ा है, वह तुझे उससे रोक न दे, अन्यथा तू विनष्ट हो जाएगा। [सूरह ताहा 20, आयत 14-16]
यह श्री मूसा (अ.स) का विशेष सौभाग्य है कि अल्लाह त'आला ने उनसे सीधे बात की। पैगंबर मुहम्मद (स) को पहला संदेश देने का वर्णन पवित्र कुरआन की सूरह नज्म में हुआ है। इस से पता चलता है कि आप को यह पद, अल्लाह के उच्च फरिश्ते, आदरणीय जिबरील के माध्यम से दिया गया। कुरआन के वर्णन के अनुसार उस समय वे अपने वास्तविक रूप में क्षितिज के उच्चतम छोर पर प्रकट हुए और अल्लाह के रसूल ने खुली आँखों से उन्हें देखा। फिर वो पैगंबर को ज्ञान देने के लिए उनके निकट आए, और जिस प्रकार एक अति स्नेहपूर्ण गुरु अपने प्रिय शिष्य के ऊपर स्नेह के साथ झुकता है, इसी प्रकार अपप्के ऊपर झुक पड़े और इतने करीब हो गए कि दो कमानों के बराबर या उस से भी कम फासला रह गया। उसके बाद अल्लाह के नबी (स) को वह संदेश दिया जिसके देने का उनको निर्देश मिला था।
عَلَّمَهُ شَدِيدُ الْقُوَىٰ ﴿٥﴾ ذُو مِرَّةٍ فَاسْتَوَىٰ ﴿٦﴾ وَهُوَ بِالْأُفُقِ الْأَعْلَىٰ ﴿٧﴾ ثُمَّ دَنَا فَتَدَلَّىٰ ﴿٨﴾ فَكَانَ قَابَ قَوْسَيْنِ أَوْ أَدْنَىٰ ﴿٩﴾ فَأَوْحَىٰ إِلَىٰ عَبْدِهِ مَا أَوْحَىٰ ﴿١٠
कुरआन हमें यह बताता है कि नबी हर क़ौम की तरफ भेजे गए। अल्लाह त'आला ने श्री आदम (अ.स) को वचन दिया था उनकी नस्ल के मार्गदर्शन के लिए वह स्वयं अपनी तरफ से मार्गदर्शक संदेश भेजता रहे गा। यह मार्गदर्शन इनही नबियों के माध्यम से आदम की संतान को दिया गया। वे नबी अल्लाह से संदेश प्राप्त करके लोगों को सत्य बताते, और सत्य के स्वीकार करने वालों को अच्छे परिणाम की शुभ सूचना देते और उस सत्य के विरोधियों को बुरे परिणाम से सचेत करते थे। इस लिए, पैगंबर मुहम्मद (स) को संबोधित करके पवित्र कुरआन ने कहा,
إِنَّا أَرْسَلْنَاكَ بِالْحَقِّ بَشِيرًا وَنَذِيرًا ۚ وَإِن مِّنْ أُمَّةٍ إِلَّا خَلَا فِيهَا نَذِيرٌ
इन नबियों से संबन्धित जिन तथ्यों का वर्णन पवित्र कुरआन में हुआ है और उन पर ईमान (विश्वास, आस्था) के लिए जो प्रत्येक व्यक्ति के ध्यान में रहने चाहिए, उनका वर्णन हम यहाँ एक क्रम के साथ करें गे।
नबूव्वत (पैगम्बरी) की हक़ीक़त (वास्तविकता)
नबूव्वत क्या है? यह 'मुखात्बाए इलाही' (ईश्वरीय सम्बोधन) के लिए किसी व्यक्ति का चयन है। इसका अर्थ यह है कि अल्लाह त'आला नबूव्वत के इस पद के, जब अपने बंदों में से किसी का चयन कर लेता है तो उस से कलाम (बातें) फरमाते हैं। कुरआन ने बताया कि मनुष्य को हमेशा दो ही तरीकों से यह सम्मान मिला है:
पहला, पर्दे के पीछे से कलाम। इस में बंदा एक आवाज़ सुनता है, लेकिन बोलने वाला उसे नज़र नहीं आता। श्री मूसा (अस) के साथ यही हुआ। 'तूर' की पहाड़ी के दामन में एक वृक्ष से आवाज़ आई, लेकिन बोलने वाला उनकी दृष्टि के सामने नहीं था।[2]
दूसरा तरीका 'वही' के माध्यम से। अरबी शब्द 'वही' किसी के दिल में कोई बात डालने के अर्थ रखता है। इस के फिर दो रूप होते हैं। प्रथमतः, अल्लाह त'आला प्रत्यक्ष रूप से नबी के दिल में अपनी बात दाल दे। दूसरा, फरिश्ता भेजे और वह उसकी तरफ से नबी के दिल में बात डाले। यह मामला सपने और जागते हुए, दोनों में हो सकता है। फिर जो बात उस में काही जाती है, वह सपने में, कभी कभी प्रतीकात्मक हो जाती है। अल्लाह के रसूल (स) पर इस के नज़ूल (अवतरित) की स्थिति का हदीस में वर्णन हुआ है। उस से पता चलता है कि इस वही के तीव्रतम रूप में इस से घंटी की सी आवाज़ पैदा होती थी, यहाँ तक कि कठिनतम सर्दी मके मौसम में भी अल्लाह के नबी (स) पसीने से भीग जाते थे।[3]
इस से आगे 'वही' की हक़ीक़त (वास्तविकता) क्या है? कुरआन का कहना है कि इस को समझना इन्सान के ज्ञान की सीमा से बाहर है। इस लिए कुरआन ने कहा
وَيَسْأَلُونَكَ عَنِ الرُّوحِ ۖ قُلِ الرُّوحُ مِنْ أَمْرِ رَبِّي وَمَا أُوتِيتُم مِّنَ الْعِلْمِ إِلَّا قَلِيلًا
"और वे तुमसे रूह (अर्थात वही) के विषय में पूछते है। कह दो, "रूह का संबंध तो मेरे रब के आदेश से है, किन्तु ज्ञान तुम्हें मिला थोड़ा ही है।" [सूरह बनी इसराईल 17, आयत 85]
अंबिया (नबी का बहुवचन) पर 'वही' क्योंकि उन की इच्छा और आकांक्षा के बिना और अल्लाह की ओर से आती है, इस कारण उन्हें इसकी प्रामाणिकता के बारे में कोई संदेह नहीं होता। फिर भी उन के हार्दिक संतोष के लिए अल्लाह त'आला इसके साथ उनको समय समय पर कुछ असाधारन अनुभव भी करा देते हैं। 'बेत अल्हराम'[काबा] से ‘मस्जिद अल-अक्सा'[यरूशलम] तक के सफर के जिस आलौकिक दर्शन का वर्णन कुरआन में हुआ है, वह इसका एक उदाहरण है[4]। इस प्रकार के दर्शन खुली आँखों से भी होते हैं। एसे एक अलौकिक दर्शन का कुरआन में इस प्रकार वर्णन हुआ है:
وَلَقَدْ رَآهُ نَزْلَةً أُخْرَىٰ ﴿١٣﴾ عِندَ سِدْرَةِ الْمُنتَهَىٰ ﴿١٤﴾ عِندَهَا جَنَّةُ الْمَأْوَىٰ ﴿١٥﴾ إِذْ يَغْشَى السِّدْرَةَ مَا يَغْشَىٰ ﴿١٦﴾ مَا زَاغَ الْبَصَرُ وَمَا طَغَىٰ ﴿١٧﴾ لَقَدْ رَأَىٰ مِنْ آيَاتِ رَبِّهِ الْكُبْرَىٰ
अंबिया के साथ ईश्वरीय संपर्क के इन तरीकों का वर्णन पवित्र कुरआन में एक स्थान पर हुआ है। कुरआन कहता है:
مَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُكَلِّمَهُ اللَّـهُ إِلَّا وَحْيًا أَوْ مِن وَرَاءِ حِجَابٍ أَوْ يُرْسِلَ رَسُولًا فَيُوحِيَ بِإِذْنِهِ مَا يَشَاءُ ۚ إِنَّهُ عَلِيٌّ حَكِيمٌ
"किसी मनुष्य की यह शान नहीं कि अल्लाह उससे बात करे, सिवाय इसके कि वही (प्रकाशना) के द्वारा या परदे के पीछे से (बात करे)। या यह कि वह एक रसूल (फ़रिश्ता) भेज दे, फिर वह अल्लाह की अनुज्ञा से जो अल्लाह चाहे वह उसकी तरफ प्रकाशना कर दे। निश्चय ही वह सर्वोच्च अत्यन्त तत्वदर्शी है।" [सूरह शूरा 42, आयत 51]
आयत के शब्दों से स्पष्ट होता है कि नबी के हृदय में यह प्रेरणा केवल सोच और विचार के रूप में नहीं उभरती, बल्कि कलाम (शब्दों) के रूप में होती है, जिस को वह नबी सुनता, समझता और सुरक्षित कर लेते हैं। तथापि इस 'वही' के शब्द और भाषा शैली, वही प्रयुक्त किए जाते हैं जिन से पैगंबर पहले से परिचित होता है, ताकि वह इस ईश्वरीय संदेश को आसानी से समझ पाए। इसी का यह परिणाम है कि एक नबी और दूसरे नबी पर अवतरित 'वही' की भाषा शैली, नबी की व्यक्तिगत क्षमता के कारण भिन्न हो जाती है।
नबी की जरूरत (आवश्यकता)
मनुष्य को जिस प्रकार यह क्षमता दी गई है कि वह एक उदाहरण पर अन्वेषन कर के परिणाम निकालता है, विभिन्न भागों को जोड़कर पूर्ण रूप देता है, और फिर उस पूर्ण रूप से उन भागों की व्याख्या करता है, सहज ज्ञान से सिद्धान्त तक पहुंचता है और जिस चीज़ का अनुभव उसे न हो उसे ऐसी चीज़ से समझता है जिस का अनुभव उसे हो, इसी प्रकार यह क्षमता भी उसे दी गई है की वह अच्छाई बुराई में अंतर करता है, पुण्य और पाप को भिन्न भिन्न पहचानता है, बल्कि इस से आगे बढ़ कर वह अपने पालनहार ईश्वर की पहचान रखता है और उसके न्याय को जानता है। लीहाजा, 'नबी' की आवश्यकता इस लिए नहीं है कि वह मनुष्यों को इन चीजों से अवगत कराए। ये सब चीज़ें तो मनुष्य की बनावट का हिस्सा हैं और उस की रचना के पहले दिन से ही उस की 'फितरत' (स्वभाव) में रखे गए हैं। कुरआन की जो आयत (4:163-165) इस लेख के प्रारम्भ में है, उस से स्पष्ट होता है की नबी की आवश्यकता इन चीजों से अवगत कराने के लिए नहीं होती, बल्कि दो मुख्य कारणों से उसकी आवश्यकता होती है:
1) 'इत्माम-ए-हिदायत' (मार्गदर्शन की पूर्ति) के लिए। अर्थात, मनुष्य के अंतर्निहित स्वभाव में ईश्वर द्वारा जो मार्गदर्शन संक्षिप्त रूप में रखा गया है, और जो कुछ मनुष्य सदा से जानता है, उस की 'याद देहानी' (स्मरण) की जाए और उस को आवश्यक विस्तार के साथ मनुष्य के लिए ठीक ठीक निर्धारित कर दिया जाए।
وَجَعَلْنَاهُمْ أَئِمَّةً يَهْدُونَ بِأَمْرِنَا وَأَوْحَيْنَا إِلَيْهِمْ فِعْلَ الْخَيْرَاتِ وَإِقَامَ الصَّلَاةِ وَإِيتَاءَ الزَّكَاةِ ۖ وَكَانُوا لَنَا عَابِدِينَ
2) 'इत्माम-ए-हुज्जत' के लिए[5]। अर्थात, मनुष्यों को गफलत (असावधानी) से जगाया जाए और उनकी अपनी बुद्धि और ज्ञान की गवाही के बाद इन नबियों के माध्यम से एक दूसरी गवाही भी पेश की जाए जो सत्य को इस हद तक स्पष्ट कर दे की किसी के पास सत्य को झुटलाने का कोई बहाना न रहे:
يَا مَعْشَرَ الْجِنِّ وَالْإِنسِ أَلَمْ يَأْتِكُمْ رُسُلٌ مِّنكُمْ يَقُصُّونَ عَلَيْكُمْ آيَاتِي وَيُنذِرُونَكُمْ لِقَاءَ يَوْمِكُمْ هَـٰذَا ۚ قَالُوا شَهِدْنَا عَلَىٰ أَنفُسِنَا ۖ وَغَرَّتْهُمُ الْحَيَاةُ الدُّنْيَا وَشَهِدُوا عَلَىٰ أَنفُسِهِمْ أَنَّهُمْ كَانُوا كَافِرِينَ ﴿١٣٠﴾ ذَٰلِكَ أَن لَّمْ يَكُن رَّبُّكَ مُهْلِكَ الْقُرَىٰ بِظُلْمٍ وَأَهْلُهَا غَافِلُونَ
नबी की मारिफ़त (पहचान)
एक नबी का व्यक्तित्व मानवता की पूर्ण अभिव्यक्ति होती है और उस का संदेश मानव स्वभाव पर आधारित होता है। सारी भलाइयों का स्रोत दो ही चीज़ें हैं: एक, अल्लाह की याद, दूसरा गरीबों से सहानुभूति। नबी स्वयं इन सद्गुणों का पालन करता है और दूसरों को इनकी ओर बुलाता है। वह लोगों से जो कुछ कहता है, बुद्धि और ज्ञान की कसौटी पर कहता है और उनही चीजों के बारे में कहता है जिन से इन्सान गाफिल होता या भुला बैठता है। फिर उस को नबूव्वत मिलने के पीछे कोई व्यक्तिगत प्रयास नहीं होता। इस कारण एक अच्छे स्वभाव के व्यक्ति को, उस नबी को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं होती। एक मननशील जन के लिए नबी का व्यक्तित्व किसी चमत्कार से कम नहीं होता।
قُل لَّوْ شَاءَ اللَّـهُ مَا تَلَوْتُهُ عَلَيْكُمْ وَلَا أَدْرَاكُم بِهِ ۖ فَقَدْ لَبِثْتُ فِيكُمْ عُمُرًا مِّن قَبْلِهِ ۚ أَفَلَا تَعْقِلُونَ
तथापि, इस के साथ, अल्लाह त'आला नबी को ऐसे प्रबल और स्पष्ट प्रमाण प्रदान करते हैं कि विरोधी, यद्यपि ज़बान से स्वीकार नहीं करते, लेकिन उन प्रमाणों की सच्चाई पर विश्वास किए बिना उन के लिए भी कोई विकल्प बाक़ी नहीं रहता। इसी कारण, कुरआन ने, हज़रत मुहम्मद (स) के समय के 'अहले किताब' के बारे में एक जगह फरमाया है कि उन में से प्रत्येक व्यक्ति अपनी मृत्यु से पहले मान ले गा कि पैगंबर की बात ही सत्य थी[6]। कुरआन से मालूम होता है कि यह प्रबल और स्पष्ट प्रमाण हर नबी को उस के समय और परिस्थिति के अनुसार दिये जाते हैं। इन में से कुछ का ज़िक्र हम यहाँ करें गे।
1. समान्यतः, एक नबी, अपने से पूर्व नबी की भविष्यवाणी (पेशङ्गोई) के मुताबिक और उस की पूर्ति के रूप में आता है। इस लिहाज से वह कोई अजनबी व्यक्ति नहीं होता। लोग उस से परिचित भी होते हैं और उस की प्रतीक्षा में भी होते हैं। हज़रत ईसा मसीह (अ.स) के बारे में यह स्पष्ट है कि उन के आने से पूर्व, हज़रत यहया (अस) ने, सारे यारूशलम में, उनके आने की सूचना दी थी [7]। हज़रत मुहम्मद (स) की बारे में भविष्यवाणियाँ 'तौरात' और 'इंजील' दोनों में वर्णित हैं[8]। बल्कि श्री मसीह (अस) के आगमन के अनेक लक्ष्यों में से एक मुख्य उद्देश्य यह बताया गया है, कि उन्हें अपने बाद एक रसूल के आने की शुभ सूचना लोगों को देनी थी[9]। कुरआन ने इसे अपनी सच्चाई के प्रमाण की हैसियत से पेश किया है कि बनी इसराईल के उलमा (विद्वान) उस नबी को इस तरह पहचानते हैं, जिस तरह एक पिता अपने पुत्र को पहचानता है[10]। इस का अर्थ यह था कि वे मुहम्मद (स) को भी खूब पहचानते थे।
وَإِنَّهُ لَتَنزِيلُ رَبِّ الْعَالَمِينَ ﴿١٩٢﴾ نَزَلَ بِهِ الرُّوحُ الْأَمِينُ ﴿١٩٣﴾ عَلَىٰ قَلْبِكَ لِتَكُونَ مِنَ الْمُنذِرِينَ ﴿١٩٤﴾ بِلِسَانٍ عَرَبِيٍّ مُّبِينٍ ﴿١٩٥﴾ وَإِنَّهُ لَفِي زُبُرِ الْأَوَّلِينَ ﴿١٩٦﴾ أَوَلَمْ يَكُن لَّهُمْ آيَةً أَن يَعْلَمَهُ عُلَمَاءُ بَنِي إِسْرَائِيلَ
"निश्चय ही यह (क़ुरआन) सारे संसार के रब की तरफ से नाज़िल (उतारा) गया गया है। इसको 'रूहुल अमीन' (अमानतदार जीव अर्थात जिबरील) लेकर तुम्हारे हृदय पर उतरा है ताकि तुम लोगों को सावधान करने वाले बनो, स्पष्ट अरबी भाषा में। और इसका उल्लेख तुमसे पूर्व के लोगों के ग्रन्थों में भी है। क्या उन के लिए यह निशानी काफी नहीं है की बनी इसराईल के विद्वान इस को जानते हैं?" [सूरह शुअरा 26, आयत 192-197]
2. नबी जो कुछ अल्लाह की तरफ से और अल्लाह के कलाम (वचन) की हैसियत से पेश करता है, उस में असंगत और परस्पर विरोधी बातें नहीं होती। दुनिया में सुकरात और अफलातून, काँट और आइन्स्टाइन, ग़ालिब और इक्बाल, राज़ी और ज़मखशरी जैसे उच्च स्तरीय प्रतिभाशाली व्यक्ति भी अपनी रचनाओं के बारे में यह दावा नहीं कर सकते।
परन्तू, पवित्र कुरआन ने यह बात अपने बारे में कही है और पूरे विश्वास के साथ कही है कि उस में ज़रा भी दार्शनिक और वैचारिक विरोधाभास नहीं खोजा जा सकता। क्या दुनिया में कोई ऐसा भी इंसान हो सकता है जो वर्षों तक अनेक परिस्थितियों में भिन्न भिन्न विषयों पर भाषण दे और शुरू से अंत तक उस के यह सारे भाषण जब मुरत्तब (संकलित) किए जाएँ तो एक ऐसे सामंजस्यपूर्ण और संगत प्रवचन का रूप धरण कर लें कि जिस में न विचारों का कोई विरोध हो, न मूतकल्लिम (वक्ता) के हृदय में पैदा होने वाली भावनाओं की कोई झलक दिखाई दे और न वैचारिक दृष्टिकोण में परिवर्तन के कोई लक्षण देखे जा सकते हों? यह केवल कुरआन की विशेषता है:
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ الْقُرْآنَ ۚ وَلَوْ كَانَ مِنْ عِندِ غَيْرِ اللَّـهِ لَوَجَدُوا فِيهِ اخْتِلَافًا كَثِيرًا
उस्ताज़ इमाम[11] लिखते हैं:
"… कुरआन की हर बात अपने उसूल (सिद्धान्त) और फूरूअ (उपसिद्धांत) में इतनी स्थिर और संगत है कि गणित और ज्यामिति के फार्मूले भी इतने स्थिर और संगत नहीं हो सकते। वह जिन अकाइद (मान्यताओं/धारणाओं) की शिक्षा देता है, वे एक दूसरे से इस प्रकार जुड़े हैं कि यदि उन में से किसी एक को भी अलग कर दीजिए तो पूरा सिलसिला ही बिखर जाये। वह जिन इबादात (उपासनाओं) का आदेश देता है, वे उपासनाएँ, अकाइद से इस प्रकार पैदा होती हैं, जिस प्रकार ताने से शाखाएँ फूटती हैं। वह जिन आमाल और अखलाक (कर्म और नैतिकता) की तलकीन (अनुरोध) करता है, वह अपने सिद्धान्त से इस प्रकार व्यक्त होते हैं, जिस प्रकार एक वस्तु से उस के प्रकृतिक और स्वाभाविक नतीजे व्यक्त होते हैं। उस की समग्र शिक्षा से जो व्यवस्था बनती है, वह एक सीसा पिलाई हुई दीवार के रूप में उजागर होती है, जिस की हर ईंट दूसरी ईंट से इस तरह जुड़ी हुई है, कि उन में किसी को भी अलग करना बगैर इस के संभव नहीं कि पूरी इमारत में खला पैदा हो जाए।" (तदब्बुरे कुरआन जिल्द 2, पृष्ठ 347)
3. नबी को अल्लाह मोजिज़ात (चमत्कार) प्रदान करते हैं। श्री मूसा (अ.स.) और मसीह (अ.स.) को जो असाधारन मोजिज़ात दिये गए, उन के बारे में खुद कुरआन ने स्पष्ट किया है कि उन के दिये जाने के कई कारणों में से एक कारण इन नबियों का अल्लाह का दूत (संदेशवाहक) होना प्रमाणित करना था। अतः 'असा-ए-मूसा' (मूसा की लाठी) और 'यद-ए-बेज़ा' (चमकदार हाथ) के का वर्णन करने के बाद कुरआन ने फरमाया है:
فَذَانِكَ بُرْهَانَانِ مِن رَّبِّكَ إِلَىٰ فِرْعَوْنَ وَمَلَئِهِ ۚ إِنَّهُمْ كَانُوا قَوْمًا فَاسِقِينَ
"…ये दो निशानियाँ है तेरे रब की ओर से फ़िरऔन और उसके दरबारियों के पास लेकर जाने के लिए। निश्चय ही वे बड़े अवज्ञाकारी लोग है।" [सूरह कसस 28, आयत 32]
इन मोजिज़ात (चमत्कारों) को कोई व्यक्ति जादू टोने या छल कपट के कर नकार नहीं सकता। क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान एवं कौशल्य की वास्तविकता उस के विशेषज्ञों से बेहतर कोई नहीं समझ सकता और वे भी उन के को स्वीकार करने पर मजबूर हो जाते हैं। श्री मूसा (अ.स.) के जिन दो चमत्कारों का वर्णन ऊपर हुआ है, उन का असर मिटाने के लिए फिरौन ने यही परीक्षा की थी। कुरआन का वर्णन है कि उस ने अपने राज्य के कई महान जादूगर बुलाए और मेले के दिन उन्हें मुक़ाबले के लिए पेश कर दिया। उस ने यह सारा प्रबंध विजय की आशंका में किया था, लेकिन हुआ यह कि जब जादूगरों श्री मूसा (अ.स.) की लाठी को अपना जादू तंत्र निगलते देखा तो वे सब मूसा (अ.स.) के सामने सजदे में झुक गए और घोषणा कर दी कि वे मूसा और हारून (अ.स.) के रब (पालनहार ईश्वर) पर ईमान (विश्वास) ले आए। यह विश्वास, क्योंकि, वास्तविकता को आँखों से देख लेने पर पैदा हुआ था, इस लिए ऐसा मजबूत था कि फिरौन ने जब उन्हें धम्की दी कि तुम्हारे हाथ पाँव विपरीत दिशाओं से काट दूंगा और तुम्हें खजूर के तनों पर सबके सामने सूली के लिए लटका दूंगा तो वही जादूगर जो कुछ क्षण पहले उस से इनाम मांग रहे थे, पुकार उठे कि यह भव्य चमत्कार देखने के बाद अब हमें किसी चीज़ की परवाह नहीं है:
قَالُوا لَن نُّؤْثِرَكَ عَلَىٰ مَا جَاءَنَا مِنَ الْبَيِّنَاتِ وَالَّذِي فَطَرَنَا ۖ فَاقْضِ مَا أَنتَ قَاضٍ ۖ إِنَّمَا تَقْضِي هَـٰذِهِ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا ﴿٧٢﴾ إِنَّا آمَنَّا بِرَبِّنَا لِيَغْفِرَ لَنَا خَطَايَانَا وَمَا أَكْرَهْتَنَا عَلَيْهِ مِنَ السِّحْرِ ۗ وَاللَّـهُ خَيْرٌ وَأَبْقَىٰ
मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलयहि वासल्लम) को जो मोजिज़ह इस हैसियत से दिया गया, वह कुरआन है। अरबी भाषा के शैलीगत विशेषताओं और अरबी साहित्य से परिचित व्यक्ति जब इस कुरआन को पढ़ते हैं तो स्पष्ट अनुभव करते हैं कि यह किसी मनुष्य की रचना नहीं हो सकता। अतः एक से अधिक स्थानों पर कुरआन ने स्वयं अपने श्रोताओं को चुनौती दी है कि यदि वे अपने इस गुमान में सच्चे हैं कि यह अल्लाह का कलाम (वाणी) नहीं है, बल्कि मुहम्मद ने इसे अपनी तरफ से रचा है, तो जिस उच्च स्तर का यह साहित्य है, उस जैसी कोई एक सूरह (अध्याय) बना ले आओ। उन की क़ौम का एक व्यक्ति यदि यह काम कर सकता है, जब कि उस ने किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त नही किया और ना ही इस से पूर्व उस का कोई साहित्यिक अतीत रहा है, तो इन विरोधियों को भी इस कार्य में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
कुरआन का यह दावा एक आश्चर्यजनक दावा था। इस का अर्थ यह था कि कुरआन एक ऐसी वाणी है, जिस के समान किसी वाणी की रचना करना मनुष्य बुद्धि के लिए असंभव है। यह फ़साहट (वाग्मिता), और बलागत (उदात्त शैली) के लिहाज़ से कुरआन की असाधारण अद्वितीयता (बे मिसाल होना) का दावा था। यह इस बात का दावा था कि कोई ऐसी वाणी पेश करें जिस में कुरआन ही की तरह खुदा बोलता हुआ नज़र आए, जो उन तथ्यों को स्पष्ट करे जिन का स्पष्ट होना मानवता के लिए अतिआवश्यक है और वे तथ्य किसी मनुष्य की बातों से कभी स्पष्ट नहीं हुए; जो उन मामलों में रहनुमाई करे जिन में रहनुमाई के लिए दूसरा कोई माध्यम उपलब्ध ही नहीं है। एक ऐसी वाणी जिस के पक्ष में विजदान (अंतर्ज्ञान) गवाही दे, ज्ञान एवं बुद्धि के आधार जिस की पुष्टि करें, जो मुर्दा दिलों को इस तरह जीवित करे जिस तरह मृत धरती को बरसात जीवित करती है, जिस में वही महिमा और वही प्रभाव हो जो कुरआन को पढ़ने वाला, कुरआन की भाषा से परिचित व्यक्ति, उसके प्रत्येक शब्द में अनुभव करता है।
इतिहास बताता है कि उस समय कुरआन को सुनने वालों में से कोई भी इस चुनौती का सामना करने का साहस नहीं कर सका। कुरआन ने फरमाया:
وَإِن كُنتُمْ فِي رَيْبٍ مِّمَّا نَزَّلْنَا عَلَىٰ عَبْدِنَا فَأْتُوا بِسُورَةٍ مِّن مِّثْلِهِ وَادْعُوا شُهَدَاءَكُم مِّن دُونِ اللَّـهِ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴿٢٣﴾ فَإِن لَّمْ تَفْعَلُوا وَلَن تَفْعَلُوا فَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِي وَقُودُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ ۖ أُعِدَّتْ لِلْكَافِرِينَ
खुदा की यह किताब इस समय भी हमारे पास है। इस पर लग भाग 14 सदियाँ बीत चुकी हैं। इस अवधि में दुनिया क्या से क्या हो गई। मनु की संतान ने नज़रिये और खयाल के कितने बुत तराशे और फिर खुद ही तोड़ दिये। मानवता और जगत के अस्तित्व के बारे में हमारे विचारों में कितने परिवर्तन आए। यह विचार स्वीकृति अस्वीकृति के कितने ही चरणों से गुजरे और अंततः कहाँ तक पहुंचे। लेकिन यह किताब (कुरआन) जिस में बहुत सी वह चीज़ें भी बताई गई हैं जो इन पिछली दो सदियों में ज्ञान और अनुसंधान का विषय रही हैं, दुनिया के सारे साहित्य में बस एक ही किताब है जो इस समय भी उसी तरह अटल और मजबूत है, जिस तरह आज से 1400 साल पहले थी। ज्ञान और विवेक जिस तरह उस समय इस की श्रेष्ठता को स्वीकार करने के लिए मजबूर थे उसी तरह आज भी हैं। इस का हर बयान आज भी पूरी शान के साथ अपनी जगह पर कायम है। दुनिया अपनी आश्चर्यजनक वैज्ञानिक खोजों के बावजूद इस में किसी संशोधन के लिए संभावना पैदा नहीं कर सकी:
وَبِالْحَقِّ أَنزَلْنَاهُ وَبِالْحَقِّ نَزَلَ ۗ وَمَا أَرْسَلْنَاكَ إِلَّا مُبَشِّرًا وَنَذِيرًا
4. अल्लाह त'आला कुछ ऐसी छुपी हुई बातों से नबी को अवगत कर देते हैं जिन का जान लेना किसी इंसान के लिए संभव नहीं होता। इस का एक उदाहरण ईश्वरीय प्रेरणा से की जाने वाली भविष्यवाणियाँ हैं, जो आश्चर्यजनक रूप से सही साबित हुईं। इन में से कुछ पवित्र कुरआन में हैं और कुछ का वर्णन हदीस की रिवायतों में हुआ है। अरब की भूमि पर पैगंबर मुहम्मद (स) की सत्ता स्थापित होने, मक्का पर विजय मिलने और लोगों का गिरोह के गिरोह दीने इस्लाम में प्रवेश होने की भविष्यवाणी से कुरआन का हर विद्यार्थी परिचित है (देखिए सूरह नसर 110)। ईरानियों से पराजित हो जाने के बाद रूमियों की पुनः विजय की भविष्यवाणी भी ऐसी ही असाधारन थी। पवित्र कुरआन में इस का उल्लेख इस प्रकार हुआ है:
غُلِبَتِ الرُّومُ ﴿٢﴾ فِي أَدْنَى الْأَرْضِ وَهُم مِّن بَعْدِ غَلَبِهِمْ سَيَغْلِبُونَ ﴿٣﴾ فِي بِضْعِ سِنِينَ ۗ لِلَّـهِ الْأَمْرُ مِن قَبْلُ وَمِن بَعْدُ ۚ وَيَوْمَئِذٍ يَفْرَحُ الْمُؤْمِنُونَ ﴿٤﴾ بِنَصْرِ اللَّـهِ ۚ يَنصُرُ مَن يَشَاءُ ۖ وَهُوَ الْعَزِيزُ الرَّحِيمُ ﴿٥﴾ وَعْدَ اللَّـهِ ۖ لَا يُخْلِفُ اللَّـهُ وَعْدَهُ وَلَـٰكِنَّ أَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُونَ
यह भविष्यवाणी जब की गई तो 'रोमन साम्राज्य का पतन' (The History of the Decline and Fall of the Roman Empire) के लेखक एडवर्ड गिबन (Edward Gibbon) के शब्दों में, "कोई भी भविष्यवाणी इस से ज़्यादा नामुमकिन नहीं हो सकती थी, क्यों कि राजा हेरक्लिअस (Heraclius) की सत्ता के पहले बारह साल रूमी साम्राज्य के अंत की घोषणा कर रहे थे[12]।" लेकिन कुरआन की यह भविष्यवाणी ठीक अपने समय पर पूरी हो गई और मार्च 628 CE में रूमी शासक इस शान से अपनी राजधानी कुस्तुंतूनिया (Constantinople) वापस लौटा की उस के रथ को चार हाथी खींच रहे थे और असंख्य लोग राजधारणी के बाहर दिये और ज़ैतून की शाखें लिए अपने हीरो के स्वागत के लिए उपस्थित थे।
5. नबियों में से जो 'रसूल' के पद पर स्थापित किए जाते हैं, वह खुदा की अदालत बन कर आते हैं और अपनी क़ौम का फैसला कर के दुनिया से विदा हो जाते हैं। यह इस प्रकार होता है कि यदि पैगंबर (दूत) की क़ौम अपने पालनहार के मीसाक (प्रसंविदा) पर कायम रहती है तो इनाम और यदि उस मीसाक से मुकर जाते हैं तो उसका दंड उन्हें दुनिया ही में मिल जाता है। इस का परिणाम यह निकलता है कि पैगंबर का अस्तित्व लोगों के लिए एक आयते इलाही (खुदा की निशानी) बन जाता है और मानो वह खुदा को उन के साथ धरती पर चलते फिरते और न्याय करे हुए देखते हैं। यह वह चीज़ है जो उन की लोगों के लिए दुनिया और आखिरत (इस लोक और परलोक) दोनों में खुदा के निर्णय आधार बन जाती है। अतः अल्लाह त'आला इन रसूलों को गलबा (प्रमुखता) देते हैं और उनके विरोधियों को दंडित करते हैं:
وَلِكُلِّ أُمَّةٍ رَّسُولٌ ۖ فَإِذَا جَاءَ رَسُولُهُمْ قُضِيَ بَيْنَهُم بِالْقِسْطِ وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ
[यह लेख आदरणीय जावेद अहमद गामिदी की उर्दू पुस्तक 'मीज़ान' के पर्व 'ईमानियात' के अध्याय 'नबियों पर ईमान' से लिय गया है। अगले भाग में निम्नलिखित विषय हों गे:
1. नबी की बशरियत (मनुष्यता) 2. नबी की फितरत (स्वभाव) 3. नबी की इस्मत (निर्दोषिता) 4. नबी की रियाज़त (उपासना) 5. नबी की फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) 6. नबी की इताअत (अनुसरण) 7. नबी की शिफाअत (मध्यस्थता) 8. खत्मे नबूव्वत (नबूव्वत का अंत)]
हवाले:
[1] सूरह 6: आयत 124
[2] सूरह कसस 28: आयत 29-30
[3] बुखारी किताब बद-अल्वही 1, बाब (अध्याय) 1, हदीस 2 और मुस्लिम किताब अस्सलात, किताब अल्फज़ाइल
[4] सूरह बनी इसराईल 17: आयत 1 और 60
[5] यानि अगर नबी और रसूल न भेजे गए होते तो मनुष्यों को बहाना मिल जाता की हमको तो अल्लाह ने सत्य-असत्य बताया ही नहीं। इसी लिए रसूल भेजे ताकि अल्लाह पर कोई आरोप न लगे और लोगों पर रसूलों के प्रमाणों से सत्य स्पष्ट हो जाए।
[6] सूरह निसा 4: आयत 159
[7] सूरह आल-ए-इमरान 3: आयत 39
[8] सूरह अल-आराफ़ 7: आयत 157
[9] सूरह अस्सफ़्फ़ 61: आयत 6
[10] सूरह अनआम 6: आयत 20
[11] 'उस्ताज़ इमाम' यानि इमाम अमीन अहसन इस्लाही जो आदरणीय जावेद अहमद गमिदी के उस्ताज़ (गुरु) थे और अपनी पुस्तक में हमेशा अपने गुरु का वर्णन 'उस्ताज़ इमाम' के सम्मानजनक शब्दों से करते हैं। इमाम अमीन अहसन इस्लाही पवित्र कुरआन के प्रसिद्ध मुफ़स्सिर (भाष्यकार) थे, और उनकी तफ़सीर (भाष्य) 'तदब्बुर-ए-कुरआन' के नाम से प्रसिद्ध है जिसके 9 जिल्द हैं।
[12] Edward Gibbon, The Decline and Fall of the Roman Empire, Vol 2 (New York: The Modern Library, n.d.), Pg. 788. "…no prophecy could be more distant from its accomplishment, since the first twelve years of Heraclius announced the approaching dissolution of the empire."
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