आम तौर पर यह माना जाता रहा है कि कुरआन में कोई समन्वय नहीं है और इसकी आयात अव्यवस्थित तरीके (बेतरतीबी) से जमा कर दी गयी हैं।
हमीदउद्दीन फराही की “मज्मुआह तफसीर”[1], अमीन अहसन इस्लाही के “तदब्बुर-ए-कुरआन”[2] और जावेद अहमद ग़ामिदी की व्याख्या (तफसीर) “अल-बयान” ने इस गलतफ़हमी को दूर करने का काम किया है। इन विद्वानों (आलिमों) की राय में कुरआन को रसूलअल्लाह (स.व) ने अल्लाह के निर्देशानुसार (हुक्म पर) व्यवस्थित और संकलित (जमा) किया है।
रसूलअल्लाह (स.व) ने कुरआन को इस आखिरी शक्ल में इस तरह जमा किया है कि इस ख़ास व्यवस्था में संरचना और विषय (मोज़ू) दोनों ही स्तर पर समन्वयता (नज़्म) है। कुरआन की संरचना को लें तो इसकी सूरतें बड़े सार्थक (मानिखेज़) तरीके से व्यवस्थित की गयी हैं, यह व्यवस्था (तरतीब) कुरआन के विषयवस्तु (मज़मून) से बारीकी से संबंधित है। इसी तरह हर सूरा के अंदर आयात की व्यवस्था सूरा के विषयवस्तु से बड़े सार्थक तौर पर संबंधित है।
आसान लफ्ज़ो में कहा जाया तो, कुरआन के अन्दर सूरतें मौज़ू के लिहाज़ से जमा कि गयी हैं और सूरतों के अंदर आयात भी इस तरह से जमा की गयी है कि वह भी एक ख़ास मोज़ू अदा करती हैं।
अमीन अहसन इस्लाही लिखते हैं:
‘हर इंसान जानता है कि कुरआन ही वह मज़बूत रस्सी है जो पूरे मुसलमान समुदाय (उम्मत) को एक साथ बांधे हुए है, हर मुसलमान को यह हुक्म दिया गया है कि वह इस रस्सी को मज़बूती से थाम ले और आपस में गुटों (फिरको) में ना बटें। इस हुक्म की सबसे पहली ज़रूरत यह है कि जब भी आपस में कोई मतभेद (इख्तेलाफ़) पैदा हो तो उसका हल कुरआन की रौशनी में तलाश किया जाये। हालांकि, बदकिस्मती यह है कि खुद कुरआन के बारे में हम सब की राय अलग-अलग है। हर आयत की व्याख्या (तशरीह) में अलग-अलग बहुत सी राय मौजूद हैं जिनमें से ज़्यादातर एक-दूसरे से एक दम अलग हैं और इनमें से कौन सी सही है यह तय करने के लिए हमारे पास कोई संदर्भ बिंदु (हवाला) नहीं है। अगर किसी लेख की व्याख्या में मतभेद पैदा हो जाए तो उसका सबसे बेहतर हल उसके सन्दर्भ (पसमंज़र) और उसके समन्वय से निकल सकता है, पर बदकिस्मती से ज्यादातर लोग यह मानते ही नहीं कि कुरआन एक ऐसी किताब है जिसका का अपना एक नज़्म है और जिसका एक ख़ास प्रसंग (पसमंज़र) है। इसका नतीजा यह निकला है कि मतभेद अब स्थायी (मुस्ताकिल) बन चुके हैं। न्यायशास्त्र (फिकहा) के अंदर ज्यादातर मतभेद आयत के संदर्भ की अनदेखी की वजह से पैदा हुए हैं। अगर इस संदर्भ को ध्यान में रखा जाये तो मालूम होता है कि ज़्यादातर जगहों पर सिर्फ एक ही व्याख्या (तशरीह) की जा सकती है.[3]
यहाँ यह बात तो साफ़ है कि जो चीज़ कुरआन की सिर्फ एक निश्चित (खास) और सही व्याख्या (तफसीर) देकर सारे मतभेद दूर कर सकती है और इमाम फराही के शब्दों: ‘कुरआन की एक से ज़्यादा व्याख्या मुमकिन नहीं है’[4] को सही साबित करती है वह है कुरआन के अन्दर मौजूद समन्वयता (नज़्म)।
फराही मत (फ़िक्र) ने जिस तरह से कुरआन के अन्दर मौजूद सम्बद्धता और व्यवस्था (नज़्म) को सामने रखा है उसके बाद इसके होने में कोई शक बाकी नहीं रह गया है। हालांकि, यह सम्बद्धता और व्यवस्था किस तरह की है ? निम्नलिखित बिंदुओं से यह समझने में मदद मिलेगी:[5]
1. हर सूरा का एक विषय (मज़मून) है और पूरी बात उसी विषय के इर्दगिर्द घूमती है और उसे एक पूर्ण रूप देती है। जिस तरह शरीर के लिए आत्मा (रूह) होती है उसी तरह हर सूरा का एक ख़ास विषय है।
2. सूरा के मुख्य पाठ (बुनियादी बयान) के साथ-साथ ही एक परिचय (तार्रुफ़) और निष्कर्ष (नतीजा) है, सूरा को कुछ जगह तो अलग- अलग अनुभाग (section) और अनुच्छेदों (paragraph) में बाँटा जा सकता है तो कुछ जगह सिर्फ अनुच्छेदों में। अनुच्छेद विषय में छोटे बदलाव को दिखाता है और अनुभाग बड़ा बदलाव सामने रखता है। परिचय वाली आयत और निष्कर्ष वाली आयत भी कभी-कभी विषय के हिसाब से अनुच्छेदों में बंट जाती है।
3. यह अनुच्छेद और अनुभाग आयत से आयत के ज़रिये नहीं जुड़े हैं बल्कि विभिन्न साहित्यिक उपकरण (अदबी अलात) जैसे की कहावतें, तुलनाएं और समानताएं और इनके अलावा वह बयान और हिस्से जो सशर्त, नियमबद्ध (मशरूत) होते हैं, आनुमानिक, संशोधन (तबदीली) करने वाले होते हैं, बार-बार आने वाले या फिर वह जो नतीजे सामने रखने वाले, फैसला सुनाने वाले और सवाल या जवाब वाले होते हैं, आदी इन्हें आपस में जोड़ते हैं।
4. सूरा का बयान इन अनुच्छेदों और अनुभागों से होता हुआ आगे बढ़ता है और अपने पराकाष्ठा (उरूज) को पहुँचता है और सूरा अपना एक अलग रूप और आकार लेकर स्वतंत्र रूप (आज़ाद तौर) से पूर्ण हो जाती है।
5. कुरआन के अंदर सूरतें भी ऐसे ही बिना किसी व्यवस्था के नहीं जमा कर दी गयीं हैं जैसा की आम तौर पर माना जाता है। इन्हें एक खास क्रम (तरतीब) में जमा किया गया है, और जिस तरह आयात एक सूरा के अंदर सार्थक (मानिखेज़) तरीके से व्यवस्थित हैं उसी तरह सूरतें विषय के हिसाब से कुरआन के अंदर जमा की गयी हैं। कुरआन सात समूह (सात मंज़िलों) में बाँटा गया है, कुछ सूरतें जैसे की सूरेह फातिहा जो कुरआन की प्रस्तावना की तरह है को छोड़ कर हर भाग में सूरतें जोड़े की शक्ल में रखी गयी है। यह जोड़े भी सूरतों के विषय के आधार पर बनाए गए है। कुछ सूरतें ऐसी भी है जो किसी समूह की पूरक हैं या समूह के निष्कर्ष (नतीजे) के रूप में आती हैं। इस सात समूह की व्यवस्था (नज़्म) को कुरआन में इन शब्दों में बयान किया गया है:
وَلَقَدْ آتَيْنَاكَ سَبْعًا مِّنَ الْمَثَانِي وَالْقُرْآنَ الْعَظِيمَ [١٥: ٨٧]
और हमने तुमको सात मसानी[6], यानी पवित्र कुरआन प्रदान कर दिया है (15:87)[7]
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद
[1]. हमीदउद्दीन फराही, मज्मुआह तफसीर, संस्करण – 2, लाहौर: फारान फाउंडेशन, 1986।
[2].. अमीन अहसन इस्लाही तदब्बुर-ए-कुरआन, संस्करण – 2, लाहौर: फारान फाउंडेशन, 1986।
[3] पूर्वोक्त
[4]. हमीदउद्दीन फराही, रसा’ईल फी उलूम अल-कुरआन (आजमगढ़:दायराह हमीदियाह 1991), 230।
[5]. जावेद अहमद ग़ामिदी : मीज़ान (लाहौर: अल-मौरिद 2009), 52-53।
[6]. जो जोड़ो में हो।
[7]. इस आयत के अधिक खुलासे के लिए देखें- अमीन अहसन इस्लाही तदब्बुर-ए-कुरआन, संस्करण-4, 377-378।