कुछ हदीसें दावा करती है कि कुरआन सात अ'हरूफ पर नाज़िल किया गया है।
जैसे कि यह खबर:
“ “अब्द अल-रहमान इब्न अब्द अल-कारी से रवायत है कि उमर इब्न अल-खत्ताब ने उनके सामने कहा: “मैंने हिशाम इब्न हाकीम इब्न हिज़ाम को सूरा फुरकान अलग तरह से पढ़ते हुए सुना और मुझे यह सूरा खुद रसूलअल्लाह (स.व) ने पढ़ कर सुनाई थी। जैसे ही मैंने यह सुना मैंने उनको पकड़ना चाहा पर उनके नमाज़ पूरी करने तक रुका रहा, उसके बाद मैं उन्हें खींच कर रसूलअल्लाह (स.व) के पास ले गया, मैंने रसूलअल्लाह से कहा: ‘मैंने इस व्यक्ति [हिशाम इब्न हाकीम इब्न हिज़ाम] को सूरा फुरकान अलग तरह से पढ़ते हुए सुना उस तरह नहीं जैसे आप ने मुझे सुनाई थी’ , रसूलअल्लाह (स.व) ने फरमाया: ‘उमर उसे छोड़ दो’, फिर हिशाम से फ़रमाया कि पढ़ो, हिशाम ने उसी तरह पढ़ी जैसा कि वह मेरे सामने पहले पढ़ रहे थे तो रसूलअल्लाह (स.व) ने फरमाया: ‘यही उतरा था’, फिर मुझसे पढने को कहा और सुनकर फ़रमाया ‘यही उतरा था; यह कुरआन सात अ'हरूफ पर उतरा है और इन में से जो तुम्हें आसान लगे तुम उसमें पढ़ सकते हो’ ” ”[1]
जावेद ग़ामिदी इस खबर का विश्लेषण करते हुए लिखते है:[2]
कुछ बातों पर विचार करें तो यह बात साफ़ हो जाती है कि यह खबर सही नहीं है और इसे लेकर कोई भी दावा करना व्यर्थ है:
यह खबर हालांकि हदीस की मुख्य किताबों में दर्ज है लेकिन इतिहास में कोई भी अब तक इसका ठोस स्पष्टीकरण नहीं दे पाया, अल-सुयूती ने इस खबर की करीब चालीस व्याख्या दर्ज की हैं, और हर एक को कमज़ोर मानते हुए यह स्वीकार किया है कि इस खबर को ‘मुताशाबिहात’ की श्रेणी में रखा जाना चाहिए यानी इसका असल मतलब सिर्फ अल्लाह ही जानता है:
और मेरे लिए इस बारे में सबसे अच्छी राय उन्हीं लोगो की है जो इस हदीस को मुताशाबिहात की श्रेणी में रखते हैं, जिसका मतलब हम नहीं समझ सकते।[3]
इसके अलावा ‘अ'हरूफ’ शब्द की व्याख्या में यह कहा जा सकता है कि इस का मतलब अरब में इस्तेमाल होने वाले उच्चारण से था लेकिन इस तरह से देखने पर हदीस खुद बेमतलब हो जाती है, हज़रत उमर (रज़ि.) और हिशाम (रज़ि.) दोनों एक ही कबीले यानी ‘कुरैश’ से थे और एक ही कबीले के लोगों का उच्चारण अलग-अलग नहीं हो सकता।
तीसरे, अगर यह बात मान ली जाये कि उच्चारण में अंतर की वजह से अलग-अलग कबीलों को अलग-अलग तरह से पढ़ने की इजाज़त थी तो कुरआन में क्रिया (verb) ‘उनज़िला’ (प्रकाशित हुआ)[4] का इस्तेमाल अनुचित (नामुनासिब) हो जाता है, कुरआन में साफ़ है कि वह रसूलअल्लाह (स.व) के कबीले ‘कुरैश’ की भाषा में उतारा गया[5]। इसके बाद यह तो माना जा सकता है कि अलग-अलग कबीलों को अपने उच्चारण में पढ़ने की इजाज़त थी पर यह नहीं माना जा सकता कि खुद अल्लाह ने कुरआन को अलग-अलग बोलियों और उच्चारण में उतारा है।
इसके अलावा, हिशाम (रज़ि.) ने मक्का विजय के दिन इस्लाम स्वीकार किया था, अब अगर इस हदीस को मान लिया जाये तो इसका मतलब यह होगा कि मक्का विजय के बाद तक भी रसूलअल्लाह (स.व) के वरिष्ठ साथी और उमर (रज़ि.) जैसे करीबी सहयोगी भी इस बात से अनजान थे कि रसूलअल्लाह (स.व) ने जिस तरह से सबके सामने कुरआन पढ़ा और सिखाया है और जिस तरह से याद करके और लिखित रूप में उसे संरक्षित (महफूज़) किया गया है, गुप्त रूप से रसूलअल्लाह (स.व) ने उससे अलग तरह से भी कुरआन को सिखाया और पढ़ाया है, हर इंसान इस दावे की गंभीरता और दूरगामी नतीजों को समझ सकता है इसलिए इसको स्वीकार करने का सवाल ही नहीं उठता।