ज़्यादातर फुक्हा (कानूनविदों) की राय में औरत की गवाही (जिन मामलों में उन्हें स्वीकार्य है) मर्द की गवाही के मुक़ाबले में आधी है।[1] वह अपनी इस राय की बुनियाद कुरआन की निम्नलिखित आयत पर रखते हैं:
وَاسْتَشْهِدُوا شَهِيدَيْنِ مِن رِّجَالِكُمْ فَإِن لَّمْ يَكُونَا رَجُلَيْنِ فَرَجُلٌ وَامْرَأَتَانِ مِمَّن تَرْضَوْنَ مِنَ الشُّهَدَاءِ أَن تَضِلَّ إِحْدَاهُمَا فَتُذَكِّرَ إِحْدَاهُمَا الْأُخْرَىٰ
[٢: ٢٨٢]
और अपने मर्दों में से दो आदमियों को गवाह बना लो [क़र्ज़ के दस्तावेज़ पर]। और अगर दो मर्द ना हो तो फिर एक मर्द और दो औरतें उन में से जिन्हें तुम गवाही के लिए सही समझो। दो औरतें इसलिए कि अगर एक उलझे तो दूसरी याद दिला दे। (2:282)
इस राय पर ग़ामिदी साहब लिखते हैं:[2]
हमारी नज़र में इस मामले में हमारे कानूनविदों की राय सही नहीं है, इसके दो कारण है:
पहला, इस आयत का किसी घटना या वारदात पर गवाही से कोई संबंध ही नहीं है। यह बिलकुल साफ़ है कि यह दस्तावेज़ पर गवाही के संबंध में है। यह बात भी हर अक्ल रखने वाला जानता है कि दस्तावेज़ पर गवाही के मामले में गवाह कौन होगा यह पहले से चुना जायेगा, उसे हम चुनते हैं जबकि किसी घटना या वारदात के मामले में गवाही की बात आएगी तो मौके पर जो मौजूद होगा उसकी ही गवाही ली जाएगी, यह पहले से तय नहीं हो सकता यह तो एक संयोग (इत्तेफाक) होता है। अगर हमने कोई दस्तावेज़ लिखा है अथवा किसी समझोते पर सहमती दी या हस्ताक्षर किए तो गवाहों का चुनाव अपनी अक्ल से हम खुद करेंगे, जबकि किसी व्यभिचार, चोरी, डकैती और इसी तरह के अन्य के मामलों में जो भी घटना के समय वहां मौजूद होगा सिर्फ उसे ही गवाह माना जा सकता है। दोनों मामलों का यह फ़र्क इतना साफ़ है कि एक के बारे में दूसरे से तर्क लेकर कोई कानून नहीं निकला जा सकता।
दूसरा, आयत का संदर्भ और शैली ऐसी है कि यह किसी कानून या राज्य के अदालती मामलों से संबंधित नहीं हो सकती। इसमें किसी अदालत को संबोधित करके यह नहीं कहा गया कि अगर इस तरह का कोई मुकदमा आये तो फिर इस तरह से गवाहों की मांग की जाये। आयत उन लोगों को संबोधित कर रही है जो कि एक तय समय-सीमा के लिए उधार लेते-देते हैं। यह उन्हें हिदायत कर रही है कि अगर वह इस तरह के लेन-देन में शामिल हैं तो दोनों पक्षों के बीच लिखित में मामला होना चाहिए और किसी विवाद या नुकसान से बचने के लिए ऐसे गवाह करने चाहिये जो कि ईमानदार, भरोसेमंद और नैतिक (अख्लाकी) रूप से समर्थ हों। इसके साथ ही उनका हस्तक्षेप और काम ऐसा हो कि वह इस ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए पूरी तरह अनुकूल हों। यही वजह है कि असल में मर्द ही को गवाह बनाने और दो मर्द ना हो तो एक मर्द और दो औरतों को गवाह बनाने के लिए कहा गया है ताकि औरतों को अदालत और विवादों में ना घसीटा जाये और अगर ज़रूरत पड़ने पर ऐसा हो तो कोई आमतौर पर घर में रहने वाली औरत उस माहोल में घबराहट या दबाव में ना आ जाये और अगर ऐसा हो तो उसके लिए दूसरी औरत सहारा बने, इसलिए ऐसे में दो औरतें गवाह होनी चाहिए।
इस आयत से यह मतलब नहीं निकालना चाहिए और ना निकल सकता है कि अदालत में एक बात तभी साबित होगी जब दो मर्द या एक मर्द और दो औरतें उसकी गवाही देंगी। आयत में कोई कानून बयान नहीं हो रहा है बल्कि एक मार्गदर्शन है आम लोगों के सामाजिक मामलों के लिए और उस को मानने की सलाह दी जा रही है ताकि विवादों से बचा जा सके। यह खुद उन्हीं के लिए फायदेमंद हैं कि वह इस प्रक्रिया को अपनायें।
इसीलिए, इस तरह के सभी निर्देशों के लिए कुरआन कहता है:
ذَٰلِكُمْ أَقْسَطُ عِندَ اللَّهِ وَأَقْوَمُ لِلشَّهَادَةِ وَأَدْنَىٰ أَلَّا تَرْتَابُوا
[٢: ٢٨٢]
अल्लाह के नज़दीक यह तरीका इंसाफ के ज़्यादा क़रीब है; गवाही को ज़्यादा दुरुस्त रखने वाला है। और इससे तुम शक में पड़ने से बचते हो। (2:282)
इब्न क़य्यम इस आयत के बारे में कहते हैं :
यह गवाही का भार उठाने और उसमें मज़बूती के बारे में है जिसके ज़रिये से माल का मालिक अपने हक़ की हिफाज़त करता है। इसका अदालत के फैसलों से कोई सबंध नहीं है। यह और चीज़ है और वह और।[3]
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद